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________________ - - 40 तत्वार्थ श्लोकवार्तिक की"" ] [ ५३६ दिनरात भोगो मे लीन हो रहा देवेन्द्र भी देवियो के कार्मण शरीर का इन्द्रियो द्वारा परिभोग नही कर सकता है। अतः अत का शरीर इन्द्रियो द्वारा उपभोग्य नहीं है ।") आपके इस लिखने का मतलब होता है कि-कार्मणशरीर चक्ष आदि सभी इन्द्रियो के विषयभूत नहीं होने के कारण वह निरुपभोग है। किन्तु मूलग्रथकार विद्यानंदी का ऐसा अभिप्राय उनके वाक्यो से निकलता नही है । इस सम्बन्ध मे उनके वाक्य निम्न प्रकार हैं "कर्मादानसुखानुभवहेतुत्वात्सोपभोग कार्मणमिति चेन्न, विवक्षितापरिज्ञानात् । इद्रयनिमित्ता हि शब्दाधु पलन्धिरुपभोगस्तस्मा निष्क्रातनिरुपभोगमिति विवक्षित ।" इसमे बताया है कि-शकाकार ने शका की है कि -"जब कार्मण शरीरसे जीवो के कर्मों का ग्रहण और सुखो का अनुभव होता है तो वह जीवो के उपभोगमे यानी काममे आता ही हैं । फिर सूत्रकारने उसको निरुपभोग क्यो कहा है ?" इसका उत्तर आचार्य ने यह दिया है कि-उपभोग शब्द का जो अर्थ यहाँ विवक्षित है उसका परिज्ञान शंकाकार को नहीं है। उपभोग शब्द का यहाँ ऐसा अर्थ माना है कि कर्ण आदि इद्रियो के निमित्त से जो शब्दादि की उपलब्धि होती है उसे यहाँ उपभोग माना है। उस उपभोग से जो रहित है वह निरुपभोग है ऐसा अर्थ यहाँ विवक्षित है। शब्द का कर्णमे टकराना इसे कहते है शब्द की उपलब्धि । इसी तरह अन्य इन्द्रियो मे उनके अपर्ने र विषयो की उपलब्धि समझ लेना । इस उपलब्धि को ही उपभोग कहते है। ऐसा उपभोग कामणशरीर के नहीं है, क्योकि कार्मण शरीर के इन्द्रिये नहीं होती हैं। मतलब यह है कि- जैसे औदारिकादि शरीरो से 3 CPM
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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