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________________ जैन कर्म सिद्धात ] [ ५०७ से रागद्वेष रूप भाव होते रहते है । यह चक्र अभव्य जीवो की अपेक्षा से अनादि अनन्त है और भव्य जीवो की अपेक्षा से अनादिशात है । यह जीव स्थूल शरीरो को अनन्तवार ग्रहण कर-कर के छोडता आया है । परन्तु तव भी यह संसार से नही छूट सका है । जब तक इसके सूक्ष्म कार्मण शरीर लगा हुआ है तब तक यह संसार से नही छूट सकता है । जैसे जब तक चावल पर से छिलका दूर नही हो जाता तब तक उसमे अकुरोत्पत्ति वनी ही रहेगी । उसी प्रकार जब तक कर्मरूप छिलका आत्मा पर बना हुआ है तब तक ससाररूप अकुर भी बना ही रहेगा । भावकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से भावकर्म होता रहता है । पूर्वक के उदयकाल मे होने वाले रागट्टप भावो को भावकर्म कहते है और रागद्वेप से होने वाला कर्मबन्ध द्रव्यकर्म कहलाता है । प्रश्न पूर्व सचित कर्मों के उदय से रागद्वेष भाव होते हैं और रागद्वेष से नये कर्म वधते है यह क्रम बीज वृक्ष की तरह अगर अनादि से चला आ रहा है तो इसका उच्छेद तो कभी होने का नही है । उत्तर : आगम वाक्य ऐसा है नांकुरः । दग्धे चीजे यथात्यय प्रादुर्भवति कर्म वीजे तथा दग्धे न रोहति भवाकुरः ॥ अर्थ जैसे चले हुए बीज मे बिल्कुल भी अकुर पैदा नहीं होता है । उसी प्रकार कर्मरूपी बीज के जला देने पर उससे भी वाकुर उत्पन्न नही होता है । तात्पर्य इसका यह हुआ कि -
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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