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________________ जैन कर्म सिद्धात ] [ ४६१ निशक हो प्राणी पाप करेंगे और पुण्य कार्यों से विमुख रहेंगे। इस प्रकार ईश्वर को क्त मानने में इस तरह के अन्य भी अनेक विवाद खडे होते है। किसी कर्म का फल हमे तुरन्त मिल जाता है किसी का कुछ माह बाद मिलता है किसी का कुछ वर्ष बाद मिलता है और किसी का जन्मातर मे मिलता है। इसका क्या कारण है ? कर्मों के फल के भोगने में समय की यह विषमता क्यो देखी जाती है ? ईश्वरवादियो की ओर से इसका ईश्वरेच्छा के सिवाय कोई सन्तोषकारक समाधान नही मिलता। किन्तु कर्मों मे ही फलदान की शक्ति मानने वाला कर्मवादी जनसिद्धात उक्त प्रश्नो का बुद्धिगम्य समाधान करता है । जैन शास्त्रो का कहना है कि बाईस भेद स्कन्ध के और एक भेद अणु का इस प्रकार पुद्गल के कुल २३ भेद होते है। इन्ही को २३ वर्गणाये कहते हैं । इनमे से १८ वर्गणाओ का जीव से कुछ सम्बन्ध नही है और ५ वर्गणाओ को जीव ग्रहण करता है। उनके नामआहार वर्गणा, तैजस वर्गणा, भापा मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा है। आहारवर्गणा से औदारिक, वैक्रियिक और आहारक ये तीन गरीर और श्वासोच्छवास बनते है । तैजस वर्गणा से तैजस शरीर बनता है। भाषावर्गणा से शब्द बनते है मनोवर्गणा से द्रव्य मन बनता है जिसके द्वारा यह जीव हित-अहित का विचार करता है और कार्मणवर्गणा से ज्ञानावरणादिक अप्ट कर्म बनते हैं। जिन क्मों के निमित्त से यह जीव चतुर्गतिरूप समार मे भ्रमण करता हुआ नाना प्रकार के दुख उठाता है और जिनके क्षय होने से यह जीव ससार से छूटकर मोक्षपद को पाता है। इन ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों के पिंड को ही कार्मण शरीर कहते है। इस प्रकार
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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