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________________ ४८४ ] ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ उसे कैसे साक्षरी बना सकेगे ?” आदि पुराण का यह वक्तव्य उसके इस श्लोक मे है देव कृतोध्वनिरित्यस देत देव, गुणस्य तथा विहतिः स्यात् । साक्षर एवच वर्ण समूहान्नैव, विनाथं मतिर्जगति त्यात् ॥७२॥ [पर्व २३ ] अब रही यह बात कि देवकृत अतिशयोमे जो 'अर्द्ध मागधी भापा' का होना अतिशय है वह फिर क्या ? नीचे हम इसी पर विचार करते है । चौतीस अतिशय और अष्टप्रातिहार्य में वाणी का प्रसंग तीन दफे आया है । एक जन्म कृत अतिशयो मे, दूसरा देवकृत अतिशयो मे और तीसरा अष्ट प्रातिहार्यो मे । ग्रहस्थावस्था मे प्रिय हित वचन का बोलना यह जन्म कृत अतिशयों में है । ऊपर अनेक ग्रन्थ प्रमाणो से जो दिव्य ध्वनि का विवेचन किया गया वह प्रातिहार्य में समझना चाहिये । देवकृत अतिशयो मे जो 'भाषा के 'है' उसका मतलब कुछ और है । और वह यह है कि देव प्रताप से समवशरणवर्ती जीवो की योग्यता मागधी भाषा को बोलने और समझने की हो जाती है । बस यही देवकृत अतिशय है। यह बात जिनसेन कृत आदिपुराण मे निम्न पद्य मे कही है अर्द्ध ब्रिजगज्जनता खिलं । मैत्री संपादन गुणाद्भुतं ॥ २५० ॥ [ पर्व २५ ] मागधिकाकारभाषा परिणता
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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