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________________ [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ विष्णुसेन रचित समवशरण स्तोत्र के अन्तर्गत उक्त च गाथा और अनागार धर्मामृत पृष्ठ ८ मे भी ऐसा उल्लेख है। भगवान् की वाणी मे ऐसा अतिशय पैदा हो जाता है कि उस के उच्चारण में भगवान के तालु ओष्ठ आदि नहीं हिलते है। मुख पर कोई विकार (हरकत) नजर नहीं आता है। श्वास का निरोध भी नही होता है । भगवान की बिना इच्छा के मेघ गर्जना की तरह निरक्षरी ध्वनि निकलती है जो एक योजन तक सबको एकसमान साफ सुनाई देतीहै । सुनाई देते वक्त वह साक्षरी हो कर श्रोताओं की अपनी २ भाषा में परिणत हो जाती है। इत्यादि गुणो के कारण ही वह "दिव्यध्वनि" इस नाम से कही जाती है। इस प्रकार का वर्णन अनेक जैन ग्रथो मे पाया जाता है उन मे से कुछ मुख्य २ प्रमाण हम यहा दे देना उचित समझते हैं : - आचार्य जिनसेन आदि पुराण में कहते हैअपरिस्पन्द ताल्वा, देरस्पष्ट दशन धुते । स्वयंभुवो मुख भोजा, जाता, चित्रं सरस्वतो ॥१४॥ विवज्ञया विनवास्य दिव्यो, वाक्प्रसरो ऽभवत् ॥१८५३ एक रूपापितभाषा श्रोतन, प्राप्य पृथग विधान् । भेजे नानात्मतां कुल्या जल, स्त्र.तिरिवाध्रियपान् ।।१८७॥ पर्व १] दिव्य महाध्वनिरस्य मुखाका, मेघरवानुकृति निरगच्छत् ॥६८-१२॥ पर्व २३ अर्थ-ताल्वादि न हिले और दातो की काति प्रकट न
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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