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________________ ४६२ ] [* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ मे इंद्रनील मणिका एक 'अजन' नामक पर्वत है। यह पर्वत ८४ हजार योजनका ऊचा और इतनाही चौडा गोल है। यानी समवृत्त कहिये नीचे से ऊपर तक बरावर गोल है। जिसकी नीव एक हजार योजन की है। इस पर्वत के ऊपर और तलहटी मे विचित्र वनखड है। इस पर्वत की तलहटी मे पर्वत की चारो दिशाओ मे पर्वत से एक लाख योजन की दूरी पर चार जलपूर्ण वापिकाये है। ये वापिकाये एक लाख योजन की लम्बी चौडी समचौकोर है और एक हजार योजन की ऊची हैं। इनके जल मे जलचर जीव नहीं हैं। फूले हये कमलादिको से वहा का जल संगधित रहता है । प्रत्येक वापिका की पूर्वादिक चारो दिशाओ मे क्रम से अशोकवन, सप्तच्छदवन, चपकवन और आम्रवन ये चार वन है। ये वन एक-एक लाख योजन के लम्बे आध-आध लाख योजन के चौडे हैं । जिस वन का जो नाम है उसी नाम का उसमे एक-एक चैत्यवृक्ष होता है। उत्त चारो वापिकाओ मे वीचोबीच दही के समान सफेद रग का एक-एक दधिमुख पर्वत है । ये चारो पर्वत दश २ हजार योजन के ऊचे, इतने ही चौड़े समवृत्त खडे ढोल की तरह के गोल है। इनकी नीव एक-एक हजार योजन की है। इनके ऊपर विविध वन है। इन्ही वापिकाओ मे प्रत्येक वापी के जो चार कोणे हैं उनमे दो कोणे तो भीतर अजनगिरी की तरफ है । और दो कोणे बाहर की तरफ हैं। बाहर की तरफ के प्रत्येक कोणे के निकट एक-एक रतिकर पर्वत हैं। चारो वापिका सम्बन्धी बाहर के ८ कोणों के निकट ८ रतिकर पर्वत समझते। ये रतिकर सोने के रंग के है। प्रत्येक की ऊचाई एक हजार योजन की है, इतनी
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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