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________________ हवनकुण्ड और अग्नित्रय ] [ ४४७ करने के कारण हो गई हो और फिर उसी गलत नकल की परंपरा चल पडी हो। खेद इस बात का है कि यह गलती अवतक भी की जारही है जो क्रिया काडी विद्वानो की घोर अज्ञता की सूचक है । सच तो यह है कि पिछले कई वर्षों से प्रतिष्ठा का कार्य कुछ ऐसे नामधारी प्रतिष्ठाचार्यों के हाथो आ पडा है जिन्होंने न तो प्रतिष्ठा विधिका ज्ञान किसी प्रामाणिक गुरु परिपाटी से प्राप्त किया है और न उन्होने स्वय इस विषय के अनेक संस्कृत ग्रन्यो का गम्भीर अध्ययन कर ही कुछ तथ्य प्राप्त किये है । इन नाम के प्रतिष्ठाचार्यों में से कुछ तो ऐसे भी थे जिन्हे संस्कृत भाषा का बोध ही नहीं था । ऐसो ही की कृपा से इदानी प्राय. सदोप प्रतिष्ठा विधि प्रचार मे आ रही है। हमारा एक प्रतिष्ठा मे जाने का काम पडा वहा हमने प्रतिष्ठाचार्य जी को हवन विधि कराते यह देखा कि "कोई वोसो दपति गठ जोडो मे बधे हुये कितने ही अग्नि कुण्डो मे आहुतिये दे रहे हैं" हवन करने वालोके साथ-साथ उनकी स्त्रियाँ भी हवन करे ऐसा किसी प्रतिष्ठा शास्त्र के अनुसार कहा तक सुसगत है यह विचारणीय है ऊपर उद्धत आशाधर के श्लोक मै तो हवन के लिये इन्द्रो का ही उल्लेख किया है इन्द्राणियो का नही । हवन करने वालो की वढी हुई सख्या के लिये तीन अग्निकुण्ड पर्याप्त न होने से बहुत से अग्निकुण्ड बनाना यह भी विचारणीय ही है । हा यह तो पढने मे आया है कि कही तीन अग्निकुण्ड की जगह एक चौकोर तीर्थकर कुण्ड से ही काम किया जा सकता है। विचार करने से वात दरअसल यह पाई गई कि इस तरह की अनर्गल प्रवृति प्रतिष्ठाचार्यो की लोभवासना से है। ये
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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