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________________ जैन खगोल विज्ञान ] [ ४११ परिवर्तमानमुपलभ्यते प्रत्यक्षप्रमाणेनैव ।" (४ थे अध्याय के १४ वे सूत्र का भाष्य) नक्षत्रो का गमन जिस प्रकार सूर्य चन्द्रमा एक दूसरी और दूसरी से तीसरी आदि वीथियो मे भ्रमण करते है उसी प्रकार नक्षत्र भ्रमण नही करते हैं। जिन नक्षत्रो की जो खास एक वीथी नियत है वे उसी मे सदा भ्रमण किया करते हैं ऐसी वीथिये सब नक्षत्रो की कुल ८ है । उनमे २ वीथी जवूद्वीप मे है और ६ लवण समुद्र मे ह । प्रथम वीथी से अतिम वीथी उत्तर दक्षिण मे ५१० योजन दूर है । नक्षत्रो की प्रथम वीथी चन्द्रमा की प्रथम वीथी के ऊपर हैं और ८वी वीथी चन्द्रमा की अतिम १५वी वीथी के ऊपर है। नक्षत्रो की शेष २ री से ७वी वीथी क्रम से चन्द्रमा की ३ री, सातवी, छठवी आठवी, दशवी, ११ वी वीथी के ऊपर है । नक्षत्रों की प्रथम वीथी मे १२ नक्षत्र घूमते हैं, उनके नाम अभिजित्, श्रवण, घनिष्ठा शतभिषा, पूर्वाभिषा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, स्वाति, पूर्वाफाल्गुणी, भरणी। तीसरी वोथी मे-मघा, पुनर्वसु ये २ नक्षत्र घूमते हैं। सातवी वोथी मे रोहिणी, चित्रा, ये २ नक्षत्र घूमते है, छठवी में कृत्तिका, आठवी मे विशाखा, दशवी मे अनुराधा, और ११वी में ज्येष्ठा सदा भ्रमण किया करता है । १५ वी वीथी से ८ नक्षत्र भ्रमण करते है उनके नाम हस्त, मूल,पूर्वाषाढ, उत्तराषाढ, मृगशीर्षा, आर्द्रा, पुष्य, और अश्लेषा । जो नक्षत्र जिस वीथी मे घूमता है वह अपनी
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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