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________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ ३८७ २ जैनियो को निरीश्वर वादो और नास्तिक कहना भी सरासर मिथ्या है अगर जैनी ईश्वर न मानते होते तो वे अपने आलीशान मन्दिरो मे किनकी उपासना करते है ? वास्तव मे जैन लोग निर्दोष, सर्वज्ञ, हितोपदेशी को ही अपना ईश्वर मानते है और उन्ही की प्रतिमा को वे पूजते हैं, अलबत्तह वे किसी ईश्वर को कर्ता हर्ता नही मानते हैं। जैसा कि उनका कहना है। यथा ‘परेषुयोगेषु मनीषयांधः प्रीति दधात्यात्मपरिग्रहेषु । तथापि देव स यदि प्रसक्तमेतज्जगदेवमयं समस्तम् ।। यशस्तिकचपू ४ था समाश्वास] अर्थ-जो शत्र ओ पर द्वष करता है और आत्मस्नेहियो मे प्रोति करता है ऐसा भी यदि ईश्वर होने लगे तो सारे जगत् को ईश्वरमय मानना चाहिये। क्योकि राग-द्वेष तो सभी मे पाये जाते हैं। इसीलिये किसो ईश्वर को दुनियावी झझटो मे पडना वे मान्य नही करते । अगर जैनो को इसी कारण से नास्तिक कहा जाता है तो भगवद्गीता मे ऐसा ही उपदेश देने वाले श्री कृष्ण को भी नास्तिक कहना चाहिये। क्योकि उन्होने भी लिखा है कि न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ नादत्त कस्यचित्पापं न कस्य सुकृत विभु । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्य ति जंतव ॥ [भगवद्गीता अध्याय ५ श्लोक १४-१५]
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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