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________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ ३७१ अजैन विद्वान् ने "भी स्वीकार की है कि " जैन साधु एक प्रशस - ! नीय - जीवन व्यतीत करने के द्वारा पूर्ण रीति से व्रत नियम और इंद्रियसयम का पालन करता हुआ जगत् के सन्मुख आत्म-संयम, का एक बडा ही उत्तम आदर्श प्रस्तुत करता है" क्यो न हो जहा ज्ञान, वैराग्य, शम, दम, अहिंसा, समदृष्टि आदि गुणो मे एक भी गुण हो तो वह आदगीय होता है, फिर जहाँ वे सब ही गुण पाये जाये वह फिर किस बुद्धिमान् के पूज्य न होगा । इस तरह क्या तो जैन साधु क्या जैनियो की आराध्य मूर्ति दोनो ही ज्ञान वैराग्य शील-सतोप का हमारे सामने एक उत्तम आदर्श रखते हैं, इसीके सहारे से सभ्यजन अपना आत्म सुधार कर दुखदायी काम-क्रोधाटिक भावो को बहुत कुछ दूर कर सकता है। जैन आगमो मे भी पद पद आपको ज्ञान, वैराग्य, और सतोप की ही शिक्षा मिलेगी, जैनधर्म का सारा ढाँचा ही वैराग्य के रंग से रंगा हुआ है, वह जो कुछ भी अनुष्ठान या किया काण्ड बतलावेगा, वह ऐसा ही होगा जो प्रत्यक्ष ही शांति का दाता हो, वह आपको ऐसी बातें कमी न वतलावेगा जिसका कोई अच्छा-सा नतीजा वर्तमान मे निकलता कभी नजर न आता हो, और यूँ ही जिन्हे परलोक मे सुखदाई बतला दिया गया हो । जैन धर्म तो आपको ऐसे ही मार्ग मे चलने का आदेश करता है जिससे आत्मा को इस लोक और परलोक में शांति मिले। वह पुकार २ कर कहता है कि हे दुखी प्राणियो । तुम दुख से छूटना चाहते हो तो क्रोध को छोडो, मान को त्यागो, कपट को हटाओ, और लोभ को जलाञ्जलि दो । इद्रिय विषयो के क्षणिक सुख से ह मोडो, अपनी आत्मा को क्षमा, सत्य शौच, तप सयम, दया, शील और सतोष से खूब भरदो, तभी तुम्हारा दुखसक्टो से उद्धार होगा । चरना अगणित जन्मो मे यूँ ही ठोकरे खाते
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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