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________________ ३५६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ "अहिंसा भूताना जगति विदितं ब्रह्म परमं ॥" जीवो की दया करना इसे ही जगत् मे परब्रह्म माना है। इस जगत् मे असख्य ऐसे वारीक जन्तु भी है जिनकी हिंसा चलने, वैठने, बोलने, खाना खाने आदि क्रियाओं मे टल नही सकती है। तव यहाँ कव कोई अहिंसक रह सकता है ? ऐसा प्रश्न गणधर देव ने भगवान मरहत देव से किया था। यथा कघं चरे कध चिठे कधमासे कधं सये । कधं भुजज्ज भासिज्ज कधं पावंण वज्झदि । अर्थ-अगणित जीवो से व्याप्त इस ससार मे कोई किस प्रकार से चले ? कसे ठहरे ? कैसे बैठे ? कैसे सोवे ? कैसे खावे? और कसे बोले ? जिससे पाप वन्ध न होवे । इन प्रश्नो का उत्तर भगवान ने इस प्रकार दिया जदं चरे जदं चिठे जदमासे जदं सये। जदं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावण वज्झइ ।। अर्थ-यत्न से चले, यत्न से तिष्ठे, यत्न से बैठे, यत्न से सोवे, यत्न से खावे और यत्न से वोले । इस प्रकार यत्लाचार पूर्वक प्रवृति करने वालो के पापो का वध नही होता है। मतलव इसका यह हुआ कि-जीव हिंसा को बचाने का विचार रखता हुआ जो क्रिया करता है उस क्रिया मे कदाचित् बाहरमे जीव हिंसा हो भी जावे तो अन्तरगमे बचानेकी भावना होने से उसे पाप नहीं लगता है। इसे ही यत्लाचार कहते हैं और यही जैन धर्म मे अहिंसा पालन का रहस्य है। जैसा कि जन शास्त्रो मे कहा है कि
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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