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________________ पीठिकादि मत्र और शासनदेव ] [ ३४१ और वह ही सुरेन्द्रत्व नामक चौथा परमस्थान कहलाता है। फिर वह इन्द्र स्वर्ग से च्युत होकर गर्भ-जन्मकल्याणक से युक्त तीर्थकर हो चक्रवत्तिपद का धारी होता है तब उसके साम्राज्य नामकी ४७ वी क्रिया होती है और वही साम्राज्य नामक ५ वा परमस्थान माना जाता है। तदनतर वे तीर्थंकर दीक्षा ले मुनि हो तप कर केवलज्ञान पा अहंत अवस्था को प्राप्त होते हैं तब उनके अष्टप्रातिहार्य, बारहसभाये, समवशरण आदि विभूतिये होती हैं, इसे ही ५० वी आर्हत्य क्रिया कहते है और यही ६ वा परमाहंत्य नामक परमस्थान माना जाता है। इस अर्हत अवस्था के बाद जब उन तीर्थंकर की मोक्ष होती है तब वह ५३ वी अग्रनिर्वृत्ति नाम की क्रिया कहलाती है और यही "परनिर्वाण" नामक ७ वा परमस्थान माना जाता है। यद्यपि ये क्रियायें गर्भान्वय की ५३ क्रियाओ के अतर्गत है तथापि जब ये क्रियायें किसी तीर्थकर होनेवाले जीव के होती है तब उनकी कन्वय नाम से जुदी सज्ञा कही जाकर वे सात परमस्थान माने जाते हैं। जैसे गर्भ से सम्बन्धित क्रियाये गर्भान्वय कही जाती हैं, और दीक्षा से सम्बन्धित क्रियाये दीक्षान्वय कही जाती हैं। उसी तरह किसी विशिष्ट कर्त्ता से (तीर्थकर जीव से) सम्बन्ध रखने वाली क्रियाये कन्वय कहलाती हैं। नही तो कन्वय सज्ञा का अन्य क्या अर्थ हो सकता है ? अतिनिकट काल मे तीर्थकर होने वाले ऐसे जो कोई पुण्यशाली जीव हैं उन्ही के ये कन्वय क्रियाये होती है। आदिपुराण मे लिखा है कि - अथात संप्रवक्ष्यामि द्विजा• कनन्वयक्रियाः । या प्रत्यासन्ननिष्ठस्य भवेयु भव्यदेहिन ॥१॥ पर्व ३६
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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