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________________ मूर्ति निर्माण की प्राचीन रीति ] [ ३३७ ___ इन उद्धरणो से सहज ही जाना जा सकता है कि प्राचीन काल में भगवान की प्रतिमा बाजारु खरीद वेच की चीज नही थी जिस शिला से वह बनाई जाती थी वह भी खान से बड़े विधि-विधान से लाई जाकर मन्दिर मे रखी जाती थी और वही पर सलावट आकर उसे बनाता था। बनाने वाला शिल्पी भी शुद्ध आचार-विचार का धारी होता था और वह समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। यहा तक कि प्रतिष्ठा की विधियो मे भी उसे साथ रक्खा जाता था और प्रतिष्ठोपयोगी कितने ही बहुमूल्य पदार्थों की प्राप्तिके अधिकार भी उसे मिले हुए थे जिससे वह मालोमाल हो जाता था। इसके अतिरिक्त और भी पुरस्कार उसे यजमान द्वारा मिला करते थे। खान की पूजा करे। पीछे खान को न्योत आवे अरु कारीगर ने मेल आवे सो वह कारीगर ब्रह्मचर्य अगीकार करे, अल्प भोजन ले, उज्ज्वल वस्त्र पहिरे, शिल्पशास्त्र का ज्ञानी बना विनय सू टाकी फरि पाषाण की धीरे-धीरे कोर काटे । पीछे वह गृहस्थ गृहस्थाचार्य सहित और घना जैनी लोग, कुटुम्ब परिवार के लोग गाजा-बाजा बजाते मगल गावते जिनगुण के स्रोत पढते महा उत्सव सू खान जाय । पीछे फेरि बोका पूजन कर विना चाम का सजोग करि महामनोज्ञ रूपा सोना के काम का महा पवित्र मन कू रजायमान करने वाला रथ विपे मोफली रूई का पहला में लपेट पाषाण रथ मे घरे । पीछे पूर्वतत् महा उत्सव सू जिन मन्दिर ला। पीछे एकांत स्थानक विषे धना विनय सहित शिल्पशास्त्रानुसार प्रतिमाजी का निर्माण करे ता विषे अनेक प्रकार गुण-दोष लिख्या है
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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