SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६' ] [★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अनेक जीव आ जाते हैं। भोजन पकते समय भी उस अन्न की वायु गध चारो ओर फैलती है अत उसके कारण उन पात्रो में जीव आ आकर पडते हैं । पापो से डरने वालो को ऊपर लिखित अनेक दोषो से भरे हुए रात्रि भोजन को विपमिले अन्न के समान सदा के लिए अवश्य त्याग कर देना चाहिए | चतुर पुरुषो को रात्रि मे सुपारी, जावित्री, ताबूल आदि भी नही खाने चाहिये क्योकि इनमे अनेक कीडो की सम्भावना है अत इनका खाना भी पापोत्पादक है। धीरवीरो को दया धर्म पालनार्थ प्यास लगने पर भी अनेक सूक्ष्म जीवो से भरे जल को भी रात्रि मे कदापि न पीना चाहिये । इस प्रकार रात्रि मे चारो प्रकार के आहार को छोडने वालो के प्रत्येक मास मे पन्द्रह दिन उपवास करने का फल प्राप्त होता है । f रात्रि भोजन के दोष के वर्णन मे जैन धर्म के ग्रन्थो के ग्रन्थ भरे पडे हैं । यदि उन सबको यहाँ उद्धृत किया जावे तो एक बहुत बड़ा ग्रन्थ हो सकता है । अत हम भी इतने से ही विश्राम लेते है | 11 रात्रि भोजन खाली धार्मिक विषय ही नही है किन्तु यह शरीर शास्त्र से भी बहुत अधिक सम्बन्ध रखता है । प्राय रात्रि भोजन से आरोग्यता की हानि होने की भी काफी सम्भावना हो सकती है । जैसे कहा है कि ! मक्षिका वमनाय स्यात्स्वरभंगाय मूर्द्धज । यूका जलोदरे विष्टि: कुष्टाय गृहकोकिली ॥ २३ ॥ धर्मसंग्रह श्रावकाचार ( मेधावीकृत) } अर्थ-रात्रि में भोजन करते समय अगर मक्षिका खाने मे आ जाय तो वमन होती है, केश खाने मे आ जाय तो स्वर
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy