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________________ ३१४ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ वैशेषिकः स्यादोलुक्यः, बार्हस्पत्यस्तु नास्तिकः ॥१५२६|| - चार्वाक लोकायतिकश्चैते षडपि तार्किकाः । (इनमें षड् दर्शनों के ही नाम दिये हैं शेष दो मीमांसा और वेदात के नाम देवकाड २ के श्लोक १६४-६५ मे दिये है) अत: जैन ग्रन्थ प्रकाशको को चाहिये कि वे इन दो "मीमांसको जैमिनीये...” श्लोकों को भी अमरकोष काड २ के ब्रह्मवर्ग मे श्लोक ६ के बाद मोटे टाइप में प्रकाशित करने का प्रक्रम करे जिससे सांप्रदायिकों का प्रयत्न विफल हो और ग्रन्थ अक्षुण्ण बने + + बघेरा, उदयपुर, टोक आदि के जेन भण्डारों में प्राप्त अमरकोष की प्रतियो के अन्त मे लेखको ने भिन्न-भिन्न प्रशस्तिया दी हैं पाठको के उपयोगार्थं समुच्चय रूप से नीचे उन्हे भी प्रस्तुत किया जाता है इनमें प्रथम जन और द्वितीय शव हैं: - - अन्त्य प्रशस्ति कृतावमर सिंहस्य, नामलिंगानुशासने काण्डस्तृतीय. सामान्यः, साग एव समर्थित इत्युक्त व्यवहारार्थं नाम लिंगानुशासनम् । शब्दाना न मतोअन्त, तावपीन्द्रवृहस्पती ॥ पद्मानि बोधयत्यकं काव्यानि कुरुते कवि । तत्सौरभ नभस्वत, सन्तस्तन्वन्तु तद्गुणान् ॥ 9 (वायुरित्यर्थः)
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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