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________________ कतिपय ग्रंथकारो का समय निर्णय ] [ ३०७ दधान स्वाध्यायं कृतपरिणतिजैनवचने करोत्यात्मा कर्मक्षयमिति समाध्यन्तरमिदं ॥५१॥ -आत्मप्रबोध अर्थ :-जिस स्वाध्याय मे भन ज्ञान के ग्रहण धारण मे लीन रहता है , शरीर विनय सयुक्त रहता है, वचन पाठ के उच्चारण में लगा रहता है और इन्द्रिय-समूह नियत्रित रहता है इस प्रकार सारी परिणति जिसमे जिनवाणी की ओर रहती है ऐसे स्वाध्याय को धारण करने वाला निश्चय ही कर्मों का क्षय करता है, अत्त. स्वाध्याय भी एक तरह से समाधि का रूपान्तर ही है। इससे सिद्ध होता है कि यह आत्म-प्रबोध ग्रथ आशाधरजी से पहिले का बना हुआ है । हस्ति मल्लके विक्रात कौरव'नाटकसे पता पडताहै कि एक श्रीकुमार कवि उनके ४ बडे भाइयो मे सब से बडे भाई थे। अगर उनके समय का आशाधर की प्रौढावस्था के समय से मेल बैठता हो तो वे ही श्रीकुमार कवि इस आत्मा-प्रबोध के कर्ता माने जा सकते है और तब यो कहना चाहिये कि आशाधर की पिछली उम्र मे वे मौजूद थे। अनगारधर्मामृत की टीका वि स १३०० मे पूर्ण हुई अत उससे पांच सात वर्ष पहिले श्रीकुमार कवि ने आत्म-प्रबोध बनाया होगा। ऐसी हालत मे हस्तिमल्ल के साहित्यिक जीवन का प्रारम्भिक समय विक्रम की १४ वीं शती का प्रथम चरण समझना चाहिये। इस तरह ७ ग्रन्थकारो के समयादि पर यहाँ कुछ नया प्रकाश डाला गया है।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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