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________________ २७२ ] * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ यतोऽसौ हरितः क्षेवादानीतो भार्यया सम। ततो हरिरिति ख्याति गतः सर्वत्र विष्टपे ॥७॥ 'पर्व २१वा इनमें लिखा है कि दशवें तीर्थकरके तीर्थमे कौशावीके राजा सुमुखने वीरंक सेठकी स्त्रीको हरकर उसके साथ भोग भोगा। फिर मुनिदान दे मरकर हरिपुरमे दपति हुये, जो विजयाई की दक्षिणश्रेणीमे क्रीडाकर भोगभूमिमे पहुँचे। उधर वीरक स्त्रीवियोगसे दग्ध हो तप कर देव हुआ। अवधिज्ञानसे हरि (?) मे पैदा हुआ। वैरीको जानकर उसे भरत क्षेत्रमे ले आया। इस प्रकार वह पापबुद्धि दुर्गतिको गया। क्योकि वह हरिक्षेत्रसे भार्या सहित लाया गया जिससे लोकमे 'हरि' इस नामसे विख्यात हुमा। कहनेकी आवश्यकता नहीं कि पद्मचरितका यह कथन, कितना अस्पष्ट और संदिग्ध है। श्लोकोकी रचना भी-विलक्षण हो गईहै। चौथे श्लोकपदोका एक दूसरेसे सम्बन्ध ही नहीं मिलता। छठवे श्लोकमे हरिके साथ पुर शब्द भी उड़ गया है। और भी विचारिये-"राजा सुमुख और उसकी रखेल स्त्रीका हरिपुरमे दपति उत्पन्न होना" यह कथन कितना भ्रमपूर्ण है। मरकर दपति होना तो भोगभूमिमे ही सभवहो सकता है। कर्मभूमिमे तो दोनो ही अलग २ मातापिताओके यहाँ जन्म लेकर फिर विवाह होनेपर दपति बनते है। यहाँ दोनोके कौन मातापिता थे ऐसा कुछ भी उल्लेख नहीं है। यह सब गडबड़ पउमचरियके अनुकरणके कारण हुई मालूम होती है। यहाँ मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि दिगम्बर श्वेताबरमे ८४ बातोंके अतिरिक्त भी अन्य कितना ही अन्तर है - - -
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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