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________________ २६६ । [I★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग : अधिक विस्तामने रखकर ही यहाँतक कि होता, है कि पउमचरियको सामने रखकर ही उसकी छाया के आधारपर कुछ अधिक विस्तार से पद्मचरित रचा गया है। यहाँतक कि दोनों का नाम भी एक ही है 卐 प्रकृत मे जिसे पउंमचरिय ' कहते हैं उसका ही संस्कृतनाम पदमचरित है। नमूने के तौर पर दोनो के कुछ अश यहाँ लिख देना ठीक होगा। देहं रोगाइण्णं जीयं तडिविलसियं पिव अणिच्वं । नवरं , कम्वगुणरसो नाव य ससिसूरगहचक्कं ॥१७॥ अल्पकालमिदं जंतो', ' शरीरं , रोगनिर्भरम् । यशस्तु सत्कथाजन्म यावच्चद्रार्कतारकम् ॥२५॥ ते नाम होंति कण्णा जे जिणवरसासणम्मि सुइपुण्णा । , अन्ने, विदूसगस्स व , दारुमया चेव निम्मविया ॥१६॥ सत्कथाश्रवणो यो च श्रवणो तो मतो मम । , अन्यौ। विदूषकस्थव श्रवणाकारधारिणी ॥२८॥ तं चेवः उत्तमंग नं धुम्मइ वण्णणांइ, सासन्ने । अन्नं पुण गुणरहियं - नालियरकर कयं चेव ॥२०॥ सच्चेष्टावर्णनावर्णा घूर्णते यत्र 'मूर्द्धनि । अयं मूर्धान्यमूर्द्धा - तु ' नालिकेरकरकवत् ॥२६॥ , जेविय सममुल्लावं भणति ते उत्तमा इह ओट्ठा। । अन्ने सुत्तजलुगा - पट्ठीसबुक्कसमसरिसा ॥२४॥ प रविषेण ने विमलसूरि की शैली को यहाँ तक अपनाया है कि-पउमचरिय, मे जहां पर्वान्त मे विमल, शब्द दिया गया है वहां पट्मचरितः मे रविषेण ने रवि, शब्द का प्रयोग किया है। दोनो के उद्देश्यों के नाम तक एक हैं।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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