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________________ १ रात्रि - भोजन त्याग ★ ऐसा कौन प्राणी है जो भोजन विना जीवित रह सके । जब तक शरीर है उसकी स्थिति के लिए भोजन भी साथ है । और तो क्या वीतरागी निस्पृटपही साधुओ को भी शरीर कायम रखने के लिए भोजन की आवश्यकता पडती ही है, तो भी जिस प्रकार विवेकवानो के अन्य कार्य विचार के साथ सम्पादन किये जाते हैं उस तरह भोजन में भी योग्यायोग्य का ख्याल रक्खा जाता है। कौन भोजन शुद्ध है, कौन अशुद्ध है, किस समय खाना, किस समय नही खाना आदि विचार ज्ञानवानो के अतिरिक्त अन्य मूढ जन के क्या हो सकते हैं । कहा है- " ज्ञानेन हीना पशुभि समाना" वास्तव मे जो मनुष्य खाने-पीने मोज उडाने मे ही अपने जीवन की इतिश्री समझे हुए हैं उन्हे तो उपदेश ही क्या दिया जा सकता है किन्तु नरभव को पाकर जो हेयोपादेय का ख्याल रखते है और अपनी आत्मा को इस लोक से भी बढकर परजन्म मे सुख पहुँचाने की जिनकी पवित्र भावना है उनके लिए ही सब प्रकार का आदेश उपदेश दिया जाता है । तथा ऐसो ही के लिए आगमों की रचना कार्यकारी है । आगम मे श्रावको के आठ मूलगुण कहे है, जिनमे रात्रि भोजन त्याग भी एक मूलगुण है जैसा कि निम्न श्लोक से प्रगट हैं आप्तपंचनुतिर्जीवदया सलिलगालनम् । विमद्यादि निशाहारोदुबराणां च वर्जनम् ॥ धर्मसंग्रह श्रावकाचार
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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