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________________ २५० ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ से बना भोजन रोटी-पुडी आदि अन्न कहलाता है । लड्डू, पेडा, बर्फी, पाक, मेवा, फलादि खाद्य कहलाता है। जल, दुग्ध, शर्वत, आम्ररस, इक्षु रस आदि पान कहलाता है । चटनी, रबडी, आदि लेह्य कहलाता है । इन चार प्रकार के भोज्य पदार्थों को जीवो पर अनुकपा करने वाला जो श्रावक रात्रि मे नही खाता है वह रात्रिभक्त विरत पद का धारक होता है । यद्यपि रात्रिभोजन जैसे महापाप का त्याग तो प्रथम प्रतिमा में ही हो जाता है किन्तु वहाँ कभी-कभी रात्रि में जल, औषधादिक ले लेता था और दूसरो को रात्रि मे भोजन जिमा भी देता था । वे सव त्रुटिया इस प्रतिमा मे नही रहती हैं I अथवा ग्रथांतरो मे रात्रिभक्त व्रत का दूसरा अर्थ यह किया है कि - जिसके रात्रि मे ही स्त्री सेवन करने का नियम हो, दिन मे उसका त्याग हो वह रात्रिभक्तव्रत का धारी कहालता है । भक्त शब्द के भोजन और सेवन इन दो अर्थों को लेकर इस प्रतिमा का स्वरूप दो तरह से बताया गया है । ७ सातवीं ब्रह्मचर्यं प्रतिमा : जिस स्त्री के शरीर मे कामीजन रति करते हैं, वह शरीर मल से उत्पन्न हुआ है, मल को पैदा करने वाला है, दुर्ग धित और मलो से भरा हुआ होने से घिनावना है । इस प्रकार के शरीर को देखकर जो श्रावक मैथुन कर्म से विरक्त हुआ स्त्रीमात्र का त्याग कर देता है, वह ब्रह्मचारी सातवी प्रतिमा का धारी होता है इस प्रतिमाधारी के परस्त्री सेवन का तो पहिले ही त्याग था । अब वह इस प्रतिमा मे स्वस्त्री सेवन का भी त्याग कर देता है |
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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