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________________ दिगम्बर परम्परा मे श्रावक धर्म का स्वरूप ] [ २४१ (१) अधिक लाभ उठाने की दृष्टि से वैलादिको को बहुत लवे ममय तक चलाना, दौडाना, जोतना अतिवाहन अतिचार है । (२) विशेष लाभ की आशा से अधिक काल तक धान्यादि का अधिक सग्रह रखना अतिसग्रह अतिचार है । (३) दूसरो के अधिक नफा देखकर चकित होकर पछताना कि हाय यह व्यवसाय हम भी करते तो आज हम भी मालोमाल हो जाते । यह अतिविस्मय अतिचार है । 7 (४) अच्छा लाभ मिलने पर भी और अधिक लाभ की लालसा रखना अतिलोभ अतिचार है । (५) लोभवश किसी पर उसकी शक्ति से अधिक बोझा लादना अतिभारवहन अतिचार है । अणुव्रतो के पालने का फल पंचाणुव्रतनिधयो निरतिक्रमण फलति सुरलोकम् । यत्रावधिरष्टगुण, दिव्य शरीरं च लभ्यते ॥ अर्थात निरतिचार रूप से पालन किये गये पाच अणुव्रत निधि स्वरूप हैं । और वे उस सुर-लोक को फलते हैं जहा पर 'अवधि ज्ञान, अणिमादि ८ ऋद्धियें और दिव्य शरीर प्राप्त होते है । (ख) तीन गुण व्रत दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत, और भोगोपभोग परिमाणव्रत ये तीन गुण व्रतो के नाम हैं । इनके धारण करने से अणुव्रत कई गुणे बढ जाते हैं । इसलिये इनका नाम गुणव्रत है ।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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