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________________ २.३८ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ "अश्वत्थामा हतो नरो वा कु जरो वा" बोल कर चालाकी की थी, इसे कूटलेखकरण अतिचार कहते हैं । (५) बेईमानी से किसी की धरोहर का आशिक हरण करके भी अपनी वेईमानी का पता न पड़ने दें, ऐसी वाग्जाल को न्यासा पहारिता अतिचार कहते हैं । ३. अचौर्याणुव्रतः बिना दिये पर द्रव्य को चाहे वह कही रक्खा हो, गढा हो, या गिर गया हो या भूला हुआ हो उसे लोभवेण स्वय न लेना और न दूसरो को देना यह तीसरा अचौर्याणुव्रत कहलाता है । बाप दादो के मर जाने आदि पर जिस कौटुंबिक सपत्ति पर अपना वाजिब हक पहुँचता हो उसे बिना दिये लेने मे इस अणुव्रती को चोरी का पाप नही लगता । चौर प्रयोग, चौरार्थादान, विलोप, सदृशसम्मिश्र और हीनाधिक विनिमान ये ५ अचौर्याणुव्रत के अतिचार होते हैं जो इस प्रकार हैं (१) घडाई - सिलाई, व्यापारादि का पेशा करने वाले सुनार, दरजी, व्यापारी ( क्रय-विक्रय करने वाले ) आदि लोग किस तरकीब से आँखो में धूल झोककर जनता को ठगते हैं । सुनार सोना चुराता है, दरजी कपडा चुराता है और व्यापारी असली घी मे डालडा या जीरे आदि मे विजातीय द्रव्य मिला देते है | यहा तक कि साफ नकली वस्तुओं को भी असली बताकर उन्हें असली के भावो मे बेच देते है। उनके इन हथकण्डो का पता तक वे नही लगने देते हैं । अचौर्याणुव्रत का
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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