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________________ २२ दिगम्बर परम्परा में श्रावक-धर्म का स्वरूप जीवो का वह आचरण जिससे जीव सांसारिक दुखो से छुटकारा पाकर आध्यात्मिक सुख की ओर अग्रसर होते है, सम्यक् चारित्र कहलाता है । उसे ही धर्म नाम से भी बोलते हैं । "चारित' खलु धम्मो " ऐसा शास्त्र वाक्य है । जो लोग प्राय घर मे रह कर इस चारित्र का आशिक रूप से पालन करते है, वे श्रावक कहलाते है, और गृह के साथ-साथ धनधान्यादि परिग्रहो का त्याग कर जो इस चारित्र को पूर्णतया पालने का उद्यम करते है, वे साधु या मुनि कहलाते हैं । इस अपेक्षा से धर्म दी 'भेदो में बट जाता है- एक श्रावक धर्म और और दूसरा मुनिधर्म । • श्रावक धर्म मे अनेक यम-नियम होते हैं। कितने ही श्रावक उच्चकोटि का चारित्र पालते हैं । कितने ही निम्न कोटि का चारित्र पालते हैं। पर उन सब की एक श्रावक सज्ञा ही है । अत एक श्रावक धर्म के भी अनेक उपभेद है । जैसे १० से लेकर ६६ तक की संख्या उत्तरोत्तर अधिकाधिक होती है, तब भी उन सब की गणना दाई की संख्या मे ही शुमार की जाती है । जो धर्म के २ भेद किये हैं, उसका मतलव इतना ही समझना चाहिये
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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