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________________ २१८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ प्रकाशन आज से लगभग चालीस वर्ष पहिले सेठ हीराचन्द जी नेमाचद जी के द्वारा हआ है। उसमे ये श्लोक कतई नहीं हैं। दूमरी आवृत्ति ६ वर्ष पहिले “जनमाहित्य-प्रमारक कार्यालय" की तरफ से प्रकाशित हई है, उसी में ये मब श्लोक है। और जहां ये दिये गये है वहा कुछ अप्रकरण से मालम होते हैं । इस प्रकार के श्लोक मगलाचरण के बाद मे या ग्रन्थ के अन्त मे दिये जाते तो प्रकरण-सगत लगते। यह भी मालूम होता है कि कातक की उत्पत्ति की ऊपर दी हुई कथा से भी भावसेन अपरिचित नही थे, क्योकि इन श्लोको मे उमी कथा का विरोध किया गया है। और कातत्र के कोमार और कालापक नामों का अर्थ जैन-मान्यता मे घटाया गया है। इससे यह ध्वनित होता है कि भावसेन के वक्त भी इसके कर्ता के विपय में मतभेट था। कोई उने जैन मानते ये और कोई अजैन । भावस्न का इसे जैनग्रन्थ घोपित करना चाहे ठीक ही हो तथापि इसे अन्तिम निर्णय नही समझ लेना चाहिये । हमारी समझ से अभी इस दिशा में और भी खोज होने की आवश्यकता है । शर्ववर्मा गृहस्थ विद्वान् थे या साधु ? इसका पता लगाना चाहिये। ऐमा नाम भी बहुत कर के गृहस्यावस्था का ही उपयुक्त हो सकता है। मुनि अवस्था का तो कुछ अटपटा सा दीखता है। अगर वे मुनि ही थे तो उनकी गुरु-परम्परा क्या है ? उन्होने और भी क्या कोई जैन ग्रन्थ बनाये है ? जब कि वे इतने प्राचीन है तो पिछले शास्त्रकारों ने उनका या उनके कातत्र का या अन्य ग्रन्थ का नोट-कातन्त्र के अवतरण-विषयक एक लेख भास्कर के १ म भाम की ३ री किरण मे सम्पादकीय स्तम्भ मे निकल चुका है। हाँ
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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