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________________ समाधिमरणके अवसर मे मुनिदीक्षा ] [ २०५ मुनि दीक्षा देवे तो शुभ महर्त देखकर देवे । अन्यथा उस आचार्य ही को सघवाह्य कर देना चाहिये।" इस कथन से मृत्यु समय मे मनि दीक्षा देने का स्पष्ट निषेध सिद्ध होता है। क्योकि अव्वल तो दीक्षा लेने वाले का मरण समय होना यही अशुभ है। दूसरे उस दिन सभी को शुभ मुहूर्त का संयोग मिल जाये यह भी संभव नहीं है। अतसमय मे मुनि दीक्षा लेने देने का कथन जैन-शास्त्रो मैं कही नही है। इस विषय का वर्णन शास्त्रो मे जिस ढग से किया है उसका मतलव लोगो ने भ्रम से मुनि दीक्षा लेना समझ लिया है। जब कि वैसा मतलब वहा के कथन का निकलता नहीं है। इस प्रकार का वर्णन प० आशाधरजी कृत सागारधर्मामृत के ८ वें अध्याय में निम्न प्रकार पाया जाता है विस्थानदोषयुक्तायाप्यापवादिकलिगिने । महावताथिने दद्याल्लिगमौत्सगिक तदा ॥३५॥ निर्यापके समर्प्य स्वं भक्त्यारोप्य महावनम् । निश्चेलो भावयेदन्यस्त्वनारोपितमेव तत् ॥४४॥ अर्थ-अडकोश और लिगेन्द्रिय संबधी तीन दोष युक्त भी हो तथापि आपवादिक लिंगी कहिये ११ वी प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक जो कि आर्य कहलाता है वह यदि महाव्रत का अर्थी हो तो उसे समाधिमरण के अवसर मे आचार्य मुनि के ४ (लिगोचिह्नो) मे से एक नग्नलिंग को देवे । अर्थात् वस्त्र छुडावर उसको नग्न बनादे। जब वह निश्चेल हो जाये तो अपने को भक्ति से निर्यापक
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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