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________________ समाधिमरणके अवसर मे मुनिदीक्षा ] [ २०३ नही आता है। परीषहो का सहना, तपस्या आदि भी उन्हे नही करनी पड़ती है। फिर भी उन्हे मुनि मान लेना यह तो एक तरह से मुनित्व की विडवना है। यदि कहो कि किसी की मुनि दीक्षा लिये बाद दस पाच घटो मे ही सर्प विष आदि से मृत्यु हो जाये तो क्या वह मुनि नही माना जा सकता? क्योकि उसको भी मुनि के मूलगुणो के पालने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ है । उत्तर इसका यह है कि उसमे और इसमे अतर है। उसको तो यह पता नही था कि-मेरी मृत्यु आज ही हो जायगी इसलिये उसके तो मुनि बनते वक्त यह सकल्प रहता है कि-मुझे मूलगुणो का पालन करते हुये परीषहे सहनी हैं एव तपस्या करके निर्जरा करनी है इसलिये वह तो मुनि माने जाने के योग्य है किन्तु दूसरा मृत्यु की निकटता के वक्त मुनि बनने वाला जब यह देखता है कि-मैं अव मरने ही वाला हू, यह भोगसामग्री व धन कुटुम्बादि सब थोडी ही देर मे वैसे ही छूट रहे हैं तो इनको मैं ही क्यो न त्यागदू जिससे मैं मुनि माना जाने लगू गा और उससे मेरा वेडा भी पार हो जाय तो इसके सिवा और कल्याण का सरल मार्ग भी क्या हो सकता है ? ऐसा विचार कर वह मुनि बनता है । इस प्रकार दोनो की परिणति मे बडा अतर है। दूसरी बात यह है कि-मुनि के भी जब यही बाछा रहती है कि-उसकी मृत्यु समाधि मरण पूर्वक हो तो श्रावक को अतिम समय मे मुनि बनने की क्या आवश्यकता है ? उसका भी लक्ष्य उस वक्त सल्लेखनापूर्वक मरण करने का ही होना चाहिये न कि मुनि बनने का। अपने जीवन मे चिरकाल तक अणुव्रतो और महाव्रतो का पालना भी तभी सफल होता है जब समाधिमरण से देहात हो । ऐसी हालत मे मरणकाल मे मुनि
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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