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________________ १७६ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ सकता । न० ४ का निरूपण तो बिलकुल ही चारित्र मे शैथिल्य लाने वाला है | क्या मास, मदिरा जैसी चीजो का नियम रूप से त्याग कराने का उपदेश किसी जैनाचार्य का हो सकता है । कभी नही, इनका परित्याग तो यमरूपेण हुआ करता है । पाच उदवर तीन मकार का त्याग तो श्रावक के मुख्य रूप से हाता है । न० ५ मे अष्टम भक्त का अर्थ 'चौला " करना गलत है । 'तेला' लिखना चाहिये जैसा कि इसी हरिवशपुराण के पृष्ठ ३६१ पर लिखा मिलता है कि - 'उपवास विधि मे चतुर्थक शब्द से उपवास, पष्ट शब्द से वेला, और अष्टम शब्द से तेला लिया गया है ।' अफसोस है आपको यह भी स्मरण नही रहा । अगर हमारे पास मूल ग्रंथ होता तो उसके श्लोक देकर उक्त अनुवादको सदोप सिद्ध करते तथापि प० दौलतरामजीकृत वचनिका जो इससे बहुत पहिले की बनी हुई है उसमे से इन्ही स्थलो को हम नीचे देते है । पाठक | देखेंगे कि इसमे कितना सुमगत लिखा है । ( १ ) यह मध्य लोक मध्यतनुवातवलय के अतपर्यंत तिष्ठा है । पृ० ७४ । (२) सो ऐरावत तो सुमेरु की उत्तर ओर है अर भरतक्षेत्र सुमेरु की दक्षिण ओर है । पृ० ७५ । (३) अथानतर एक मेरु सम्वन्धी सोलावक्षारगिरि.... पृ० ८८ । H (४) अर मास मद्य मधु उदबरारादि पच फलो का त्याग अर जिन वृक्षो मे दूध झरे जवू करोदा आदि उनके फलो का त्याग अर जुवा, वेश्या, चोरी, परनारी, आखेट इत्यादि पापो
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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