SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म मे जीवो का परलोक. ] [ १४५ । उपर्युक्त चार गतियों मे से मनुष्य और तियंच (पशु, पक्षी, कीडे) गति के जीवो का हाल तो प्रत्यक्ष ही है, अत: उनका वर्णन न करके यहां हम नरक और देवगति का वर्णन करते हैं - कुल नरक सात है । जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, उसका नाम 'रत्नप्रभा' है । उसके भीतर कोसो तक के लम्बे-चौडे अनेक बिल हैं । जमीन मे ढोल के गाड देने पर जो पोलाई ढोले मे रहती है, उस तरह के बिल है, जिनमें नारकी जीव रहते है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के भीतर बिलो मे जितने नारकी रहते हैं, वह सब प्रथम तरक कहलाता है । इससे नीचे कुछ फासले पर 'शर्कराप्रभा' नाम की दूसरी पृथ्वी है। उसके भीतर भी उसी तरह के कितने ही बिल है, जिनमे नारकी जीव रहते है। यह. दूसरा नरक कहलाता है। इसी तरह कुछ और फासले पर उत्तरोत्तर नीचे-से-नीचे पांच पृथ्वियाँ और हैं जिनके विलो. मे भी नारकी जीव रहते है. जिन्हे कि तीसरे से सातवाँ नरक कहना चाहिए । किसी एक नरक का नारकी अन्य नरको मे नहीं जा सकता , बल्कि किसी एकही नरक के भिन्न-भिन्न बिलो में रहने वाले नारकी अपने ही नरक मे अपने बिल के सिवा अन्य बिल में भी नही जा सक्ते । इन सबकी आयु ऊपर की अपेक्षा नीचे के नरको मे अधिक हैं। प्रत्येक बिल मे बहुत से नारकी रहते हैं और प्राय वे एक-दूसरे को मार-काट कर दु ख देते रहते है। यहाँ आने के बाद उन्हे अपनी पूरी, आयु तक यहाँ रहकर दु.ख सहना पड़ता है। चाहे उनके शरीरो का तिल-तिल मात्र भी क्यो न काट दिया जाए, वे अपनी आयु पूर्ण होने के पहले वहाँ से निकल नहीं सकते। उनके कटे हुए शरीर के टुवाडे पारे की तरह ,
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy