SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धान्ताध्ययन पर विचार ] [ १२६ में ग्रन्थकर्त्ता प्रसिद्ध हुआ हू। इस प्रकार श्रुतज्ञानऋद्धि से पूर्ण होकर में श्री वीरनाथका पहिला गणधर हुआ हूँ । ' जिस जैन वाणी का प्रादुर्भाव इतनी महत्ता को लिए हुए है उसका प्रचार संसार में प्रचुरता के साथ होना चाहिए किन्तु इस विषय मे जैन समाज आज जो भी कुछ कर रहा है वह सन्तोषप्रद नहीं कहा जा सकता। और तो क्या हम अब तक ग्रन्थ प्रकाश का प्रबन्ध भी ऐसा नही कर पाये जिसे ठीक कह सकें। इसके लिए हमारे पास द्रव्य की कमी नही है क्योंकि जो समाज प्रतिसाल मेला प्रतिष्ठा की धूमधाम मे लाखो रुपये लगाती है उसके लिए यह कैसे कहे कि धन की कमी है ? कमी है सिर्फ ग्रन्थ प्रकाशन में रुचि होने की। सच तो यह है कि धनी लोग इसे महत्व का काम ही नही समझते हैं इसका भी एक कारण है । पिछले कुछ समय मे जैन समाज की बागडोर प्राय ऐसे लोगो के हाथो में थी जो स्वयं मदाध और विवेकशून्य होकर परमगुरु के पदपर आसीन थे और इसी महान पदपर अपने को हमेशा कायम रखने के लिये जनता को ज्ञानहीन बनाये रखना चाहते थे । इसके लिये लोगोको उल्टी पट्टी पढाई गई किश्रावकों को सिद्धात ग्रंथोके पढने का अधिकार नही है । गृहस्थो का तो केवल दान पूजा प्रभावना करना ही है । इसमे उनका कल्याण है। बस भोले लोग इस भुलावे में आगये । फल उसका यह हुआ कि जनता की रुचि पूजा प्रभावना के काम मे ही इतनी अधिक बढी कि आज भी वे अपने को न सम्हाल सके। खेद तो यह है कि उक्त प्रकार का स्वार्थ मूलक उपदेश ही नही दिया गया किंतु उसे संस्कृत प्राकृत भाषा मे ग्रंथबद्ध भी कर दिया गया जिससे इस चक्कर मे कतिपय विद्वान भी आते रहे । इस तरह यह
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy