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________________ चातुर्मास योग ] [ १२५ बाद भी वर्षा काल की समाप्ति तक यानी कार्तिक शु० १५ तक या मास कल्प के अनुसार मगसिर शु० १५ तक भी वही पर ठहरा जा सकता है, कारणवश इससे पहले भी विहार विया जा सकता है किंतु कार्तिक श्० ५ से पहिले तो कारणवश भी विहार नही हो सकता है । विहार करने पर प्रायश्चित लेना होगा । (५) महामारी आदि कारणों से यदि वर्षाकाल में स्थान छोडने की जरूरत आ पडे तो श्रावण कृ० ४ तक ही वे अन्यत्र जा सकते हैं। बाद में नही । बाद मे जाने पर प्रायश्चित लेना होगा । (६) चातुर्मास के अलावा हेमतादि दो-दो मास वी ऋतुओ मे प्रत्येक ऋतु मे १ मास तक मुनियो का एक स्थान पर ठहरे रहना और १ मास तक विचरते रहना ऐसा भी विधान 'मूलाधार में मास कल्प के स्वरूप कथन मे किया है । ८ (७) मुलाचार मे आष्टाह्निक पर्व के 5 दिन तक मुनियो को एक स्थान मे रहने के विधान का भी आभास मिलता है । (८) जो मुनिं श्रावण कृ० ४ के बाद वर्षायोग ग्रहण करते हैं और कार्तिक शु० ५ से पहिले ही वर्षायोग को समाप्त कर विहार कर जाते हैं । वे मुनि प्रायश्चित्त के योग्य माने गये है अर्थात् ऐसे मुनियों को इसका प्रायश्चित्त लेना चाहिए । ·
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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