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________________ ε० ] [ ★ जंन निवन्ध रत्नावली भाग २ विपरीतता निपजाई ताकै कार्यभूत तत्वश्रद्धान विषै दृढता कैसे सभवे ? तातै तहादर्शनमोह का उदय सभव है ।" इस प्रकार पंडित प्रवर टोडरमलजी ने विवेचन किया है जिसे देखकर कहना पडता है कि आपने भी साधुओ के शिथिलाचार के विषय में पूर्वाचार्यो का ही अनुसरण किया है । इन्ही के कुछ समय बाद पडित जयचन्द जी भी बडे ही प्रतिभाशाली विद्वान् हुये है । आपने सस्कृत प्राकृत के कोई तेरह चौदह गन्थो की देशभाषा मे वडी उत्तम टीकाये लिखी है । आपने दर्शनपाहुड की २६ वी गाथा को टीका के भावार्थ मे इस सम्बन्ध में निम्न प्रकार कथन किया है( यह गाथा इस लेख में ऊपर उद्धत हुई है | ) "जो गृहस्थ भेष धारया है सो तो असयमी है ही । बहुरि जो बाह्य नग्नरूप धारण किया अर अन्तरंग मे भावसयम नाही है तो वह भी असयमी ही है । ताते ये दोऊ ही असयमी हैं, ताते दोऊ ही वदवे योग्य नाहीं । इहा आशय ऐसा है जो ऐसे मति जानियो - जो आचार्य यथाजातरूप के दर्शन करते आवे है सो केवल नग्नरूप ही यथाजातरूप होगा, जाते आचार्य तो बाह्य आभ्यतर सव परिग्रह सू रहित होय ताकू यथाजातरूप कहैं है, अभ्यंतर भावसयम बिना बाह्य नग्न भये तो किछू सयमी होय है नाही, ऐसे जानना । لہ इहा कोई पूछे – बाह्यभेप शुद्ध होय आचार निर्दोष पालता तार्क अभ्यंतर भावो में कपट होय ताका निश्चय कैसे होय ? तथा सूक्ष्म भाव केवलीगम्य हैं, मिथ्यात्व होय ताका निश्चय कैसे होय, निश्चय विना वदने की कहा रीति ? 7
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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