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________________ ८६ ] [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अल्प या वहुत वस्तु हैं तो तिसतै निगोद जाय । सो इहा देखो गृहस्थपने मे बहुत परिग्रह राखि किछू प्रमाण करें तो भी स्वर्ग का अधिकारी हो हैं । अर मुनिपने मै किचित् परिग्रह अगीकार किये ही निगोद जाने वाला हो है । तातै ऊँचा नाम धराय नीची प्रवृत्ति युक्त नाही । अब इहा कुयुक्ति करि जे तिनि कुगुरुनि का स्थापन कर है तिनिका निराकरण कीजिये है । तहा वह क है है - गुरु बिना तो निगुरा होय, अर वैसे गुरु अबार दीस नाही, ताते इनही को गुरु मानना । ताका उत्तर - निगुरा तो बाका नाम है जो गुरु मान ही नाही | ( बहुरि जो गुरु को तो मान अर इस क्षेत्र विषं गुरु का लक्षण न देखि काहू को गुरु न माने तो इस श्रद्धान ते तो निगुरा होता नाही । जैसे नास्तिक तो वाका नाम हैं जो परमेश्वर को मान ही नाही । बहुरि जो परमेश्वर को तो मान अर इस क्षेत्र विषै परमेश्वर का लक्षण न देखि काहू को परमेश्वर न माने तो नास्तिक तो होता नाही । तैसे ही यह जानना ।) बहुरि वह कहँ है (जैनशास्त्रनि विषे अबार केवली का तो मभाव कया है, मुनि का तो अभाव कह्या नाही ताका उत्तर (ऐसा तो कह्या नाही इनि देशनि विषै सद्भाव रहेगा । भरतक्षेत्र विषं कहे है सो भरतक्षेत्र तो बहुत बड़ा है | कही सद्भाव होगा तातै अभाव न कया हैं । जो तुम रहो हो तिस ही क्षेत्र विषे सद्भाव मानोगे तो जहाँ ऐसे भी गुरु न पावोगे, तहाँ जावोगे तब किसको गुरु मानोगे । जैसे हसनि का सद्भाव बबार कह्या हैं अर हस दीसते नाही 173
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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