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________________ प० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [ ८३ को धारण करके मठो में निवास करते है । और मठो के अधिपति वने हुए है । वे जिनलिंग की नकल करके मुनियो की तरह दिखते हुए म्लेच्छो के समान लोकविरुद्ध व शास्त्र विरुद्ध आचरण करते हैं । इस प्रकार ये तीनो ही तरह के कुत्सित साधु मानो मनुष्य शरीर के आकार मे साक्षात् मोह के रूप ही हैं। ऐसा जान कर सम्यक्त्व के आराधक भव्यजीवो को चाहिये कि वे इनको न तो मन से अनुमोदना करे, न वचन से प्रशंसा करे और न काय से ससर्ग रक्खे' | इस वक्तव्य मे प० आशाधर जी ने द्रव्यलिंग के धारी उन नग्न जैन मुनियो को भी खोटे तापसियो की श्रेणी में बैठा कर उन सबको ही उन्होने पुरुषाकार मोह मिथ्यात्व वताकर उनसे ससर्ग न रखने का उपदेश दिया है, यह खास तौर पर ध्यान देने की चीज है । प० आशाधर जी ने अपने मतव्य की पुष्टि मे यहाँ एक पुरातन श्लोक भी उद्धृत किया है जिसमे लिखा है कि ऐसे ही कुसाधुओ ने भगवान जिनेन्द्र के निर्मल शासन को मलिन किया है । यथा पण्डिते श्रष्टचारितंबंठरंश्च तपोधनैः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ आशाधर जी के इस प्रकार के उल्लेख से साफ प्रगट १ - ( ' लेख विस्तार के भय से हमने यहाँ टीका के संस्कृत वाक्यो को नहीं लिखा है । इतना जरूर है कि प० आशाधर जी ने सस्कृत टीका मे जैसा लिखा है उसी को हूबहू हमने हिन्दी मे लिख दिया है । हमने अपनी तरफ से बढाकर कुछ भी नहीं लिखा है यह बात मूल पुस्तक से मिलाकर कोई भी देख सकता है ।)
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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