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________________ प० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [ ७९ भावलिंग का धारी है वही कर्म प्रकृतियो के समूह का नाश करता है। बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो ॥१५३॥ - "भावपार" अर्थ-जो साधु मलिनचित्त हुआ मुनिचर्या मे अनेक दोष लगाता है वह श्रावक के समान भी नहीं है। धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं । णाऊण धुव कुज्जा तवयरणं गाणजुत्तो वि ॥६० ॥ - "मोक्षपाहुड" ___ अर्थ-चारज्ञान के धारी और जिनकी सिद्धि निश्चित है, ऐसे तीर्थङ्कर भी तपश्चरण करते है ऐसा जानकर विद्वान् मुनि को भी निश्चय से तपस्या करनी चाहिये । सुहेण भाविद णाण दुहे जादे विणस्सदि। तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावय ॥ १२ ॥ - "मोक्षपाहुड़" अर्थ-सुख की वासना मे रहा ज्ञान दुख पड़ने पर नष्ट हो जाता है। इसलिये योगी को यथा शक्ति दुख सहने का अभ्यास करना चाहिये । अर्थात् परीपहो को सहना चाहिये । नाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहण च सणविहूणं । · संजमहीणो य तवो जइ चरइ णिरत्ययं सवव ॥५॥ - 'शोलपाहुड़" अर्थ-चारित्रहीन ज्ञान को, सम्यक्त्वरहित लिंगग्रहण को और सयमहीन तप को यदि कोई आचरता है तो ये उसके निरर्थक हैं।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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