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________________ ६ 1 पं० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु जिन देव-शास्त्र-गुरू की हम नित्य पूजा करते हैं उनमे देव शास्त्र के साथ गुरू का नाम भी जुडा हुआ है। इससे प्रगट होता है कि - गुरू यानी मुनि का पद भी कम महत्व का नही है | गुरू के लिये एक कवि ने यहाँ तक लिख दिया है कि - " वे गुरू चरण धरे जहाँ जग मे तीरथ होइ ।" ऐसे महान् पद के धारी मुनि भी केवल वेषमात्र से ही मुनि न होने चाहिए, किन्तु वेष के अनुसार उनमे मुनिपने का वह उज्ज्वल चारित्र भी होना चाहिये जो मुनियो के आचार शास्त्रो मे लिखा है । आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार मे गुरू का लक्षण इस प्रकार लिखा है विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ अर्थ - जो इन्द्रियो के विषयो की आशा से दूर रहता हुआ आरम्भ परिग्रह से रहित और ज्ञान-ध्यान तप मे तल्लीन रहता है, वही प्रशसनीय मुनि कहलाता है । इस महान पद की सुरक्षा के लिए हमारे पूर्वाचार्यों ने मुनियो के शिथिलाचार पर वडी कडी दृष्टि रक्खी है । वेषमात्र को तो उन्होने आदरणीय ही नही माना है । उन्होने इस दिशा मे सावधान रहने के लिए मुनिभक्तो को जो आदेश दिया है उसके कुछ नमूने हम यहाँ लिख देना उचित समझते हैं
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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