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________________ ( ६१ ) मंचित होने से आत्मा हो अमूर्त माना गया है तथापि अनादिकाल से कमों से बंधा हुआ होने से उसे मूर्त भी कहा जा सकता है। शुद्ध-स्वरूप की अपेक्षा से वह अमूर्त है और कर्मबन्ध रूप पर्याय को अपेक्षा से वह मूर्त मी है । आत्मा का चौथा विशेषण हं कर्त्ता । सांख्य दर्शन आत्मा को कर्ता नहीं मानता । वहाँ वह मात्र भोक्ता है | कर्तृत्व तो केवल प्रकृति में हैं किन्तु जनदर्शन में आत्मा व्यवहार नय से पुद्गल कर्मों का अशुद्ध निश्चय नय से चेतन कर्मों अर्थात् राग, द्वेषादि का और शुद्ध निश्चय नय से अपने ज्ञान, वर्शन आदि शुद्ध भावों का कर्त्ता है । आत्मा का fear विशेषण है भोला । बोद्ध-दर्शन क्षणिकवादी होने के कारण कर्ता और भोक्ता का ऐक्य मानने की स्थिति में नहीं है। जनदर्शन के अनुसार आत्मा सुख-दुःख रूप पुद्गल कर्मों का व्यवहार नय से भोक्ता है और निश्चय नव से वह अपने कर्मफल की अपेक्षा चेतन भावों का ही भोक्ता है । स्वदेह परिणाम आत्मा का छठा विशेषण है। इसके अर्थ हैं आत्मा को जितना बड़ा शरीर मिलता है उसी के अनुसार उसका परिमाण हो जाता है । नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक और सांख्य दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं । जनदर्शन में व्यवहार नय के अनुसार आत्मा के प्रवेशों का संकोच और विस्तार होता है। निश्चय नय के अनुसार वह लोकाकाश की तरह असंख्यात प्रदेशी अर्थात् लोक के बराबर बड़ा है। इस प्रकार इसका इन चारों दर्शनों के साथ समन्वय हो जाता है । संसारस्य आत्मा का सातवाँ विशेषण है । सदा- शिव दर्शन मान्यता के अनुसार आत्मा कभी संसारी नहीं होता, कर्म-परिणामों से वह अछूता सर्वदा शुद्ध बना रहता है । जंनदर्शन के व्यवहार नय की अपेक्षा से संसारी जीव अर्थात् अशुद्ध जीव सुबल ध्यान में अपने कर्मों को क्षय कर मुक्त होता है, निश्चय नय को अपेक्षा से वह शुद्ध है। संवर- निर्जरा परक पूर्ण आत्मा का आठवां विशेषण है सिद्ध । यह पारिभाषिक शब्द है, इसका अर्थ है ज्ञानावरणावि आठ कर्मों से रहित होना । आचार्य मइट और चार्वाक के अनुसार आत्मा का आदर्श स्वर्ग है। यहाँ मोक्ष की कल्पना नहीं है। चार्वाक तो जीव की eer को ही स्वीकार नहीं करते । जैन दर्श
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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