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________________ ( ६० ) इनके नाश होने पर मुक्ति प्राप्त होती है। प्रत्येक पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता में ही विकास कर रहा है, कोई किसी का कर्ता हर्ता नहीं है । जब जीव ऐसा चिन्तयन करता है तो फिर पर से ममत्व नहीं होता है । अशुचि भावना से प्रेरित होकर शरीर आसक्ति भी निरर्थक प्रतीत हो उठती है । निश्चय दृष्टि से देखा जाय तो आत्मा केवल ज्ञानमय हैं । विभाव भावरूप परिणाम तो आलव भाव हैं जो कि नष्ट होना चाहिए । fare से आमस्वरूप में लीन हो जाना ही संदर है । उसका कथन समिति, गुप्ति और संयम रूप से किया जाता है जिसे धारण करने से पापों का शमन होता है । ज्ञानस्वभावी आत्मा ही संवर मय है। उसके आश्रय से हो पूर्वोपार्जित कर्मों का नाश होता है और यह आत्मा अपने स्वभाव को प्राप्त करता है । लोक अर्थात् षट् ब्रव्य का स्वरूप विचार करके अपनी आत्मा में लीन होना चाहिए । निश्चय और व्यवहार को अच्छी तरह जानकर मिथ्यात्व भावों को दूर करना चाहिए। आत्मा का स्वभाव ज्ञानमय है अतः वह निश्वय से दुर्लभ नहीं है। संसार में आत्मज्ञान को 'दुर्लभ' तो व्यवहार नय से कहा गया है । आत्मा का स्वभाव ज्ञानदर्शन मय है । क्या, क्षमा आदि दश धर्म और रत्नत्रय सब इसमें हो गर्भित हो जाते हैं । विवेच्य काव्य में इन बारह भावनाओं की विशद व्याख्या हुई है । कोई मी पूजक यदि इस काव्य का नित्य सुपाठ करे तो उत्तरोतर उत्कर्ष को प्राप्त कर सकता है। संसार में समस्त प्राणी दु:खी दिखलाई पड़ते हैं । फलस्वरूप वे सभी दु:ख से बचने का उपाय भी करते हैं। प्रयोजनभूत तत्वों का जिस वस्तु का जो स्वभाव है वह तत्व है। जैन दर्शन में तत्व-भेद करते हुए उन्हें निम्न सात भागों में विभाजित किया गया है।" यथा १. 'तद् भावस्तत्वमा' - सर्वार्थसिद्धि, देवसेनाचार्य, अध्याय संख्या २, सूत्रसंख्या ४२, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण, सन् १९५५, पृष्ठ ५ । १. जीवा जीवास्रव बंध संवर निर्जरा मोक्षस्तत्वम् । - तत्वार्थ सूत्र, उमास्वामी, प्रथम अध्याय, सूत्रांक ४, अखिल विश्व जैन मिशन, अलीगंज, एटा, सन् १९५७, पृष्ठ ३ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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