SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४१ ) इंग हुआ । इस प्रकार अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति व अव्यक्तभ्य बार मंग निश्चित होते हैं। प्रत्येक के साथ अव्यक्तव्य लगा देने से अस्ति अव्यक्तव्य, नास्ति अव्यक्तव्य, अस्ति नास्ति अव्यक्तव्य तीन और मंत्र हो जाते हैं । इन्हें व्यवस्थित रूप से निम्न रूप में रख सकते हैं' यथा १. स्यात् अस्ति । स्यात् नास्ति । स्याद् अस्ति नास्ति । स्यार् अव्यक्तव्य | ५. स्यात् अस्ति अव्यक्तव्य । ६. स्यात् नास्ति अव्यक्तब्य । ७. २. ३. ४. स्यात् अस्ति नास्ति अव्यक्तव्य । केवल सात मंग ही होते हैं इससे अधिक मंगों का प्रयोग करने से पुनरुक्ति दोष होता है ।" अठारहवीं शती के कविवर चान्तराय विरचित 'श्री देवपूजा' में जिनवाणी को सप्तमंग शैली में प्रकाशित किया गया है ।' 'श्री देव-शास्त्रगुरु पूजा' नामक काव्य में कवि द्यानतराय ने गणधर द्वारा द्वादशांग बाणी को १. सिय अस्थि णत्थि उभयं भव्क्तव्यं पुणो य ततिदयं । दव्वं खु सतभंगं आदेसवसेण संभवदि । - पंचास्तिकाय, गाथांक १४, कुन्दकुन्द प्राभूते संग्रह, आचार्य कुन्दकुन्द, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण सन् १९६०, पृष्ठ २१ । २. अपभ्रंश वाङ्मय में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि, आदित्य प्रचंडिया', ' 'दीति', महावीर प्रकाशन, अलीगंज, एटा, उ०प्र०, १६७७, पृष्ठ ८-९ । ३. छहों दरब गुन पर जय भासी । पंच परावर्तन परकासी ॥ सात भंग बाणी - परकाशक । आठों कर्म महारिपु नाशक । श्री देवपूजा, खानतराय, बृहद जिनवाणी संग्रह, सम्पादक - प्रकाशक पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, राजस्थान, सन् १९५६, पृष्ठ ३०३ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy