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________________ एकेन्द्रिय एषणा ओम् (8) ओम् नमः करणानयोग (३७. ) जिसके एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है ऐसे जीव, पृथ्वीकायिक, अपकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और बनस्पति कायिक जीव । एषणा का अर्थ निमित्त तप वृद्धि के लिए ही नियंत्रित इच्छा से भोजन ग्रहण करना है। णमोकार मंत्र के प्रथमाक्षरों (म+अ+आ+उ+म्) से बना प्रणवनाद, मोक्षद, समयसार, जिनेश्वर को ओंकार रूप कहा गया है। पंच परमेष्ठियों (अहंन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु) को नमस्कार। वीतरागता को पोषण करने वाले कपन को चार विधियों में से एक वणित विधि करणानुयोग । जीव के साथ जुडने वाला पुद्गल स्कन्ध कर्म कहलाता है, विषय को दृष्टि से इनके आठ भेद किए गए हैंज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र। चक्रवतियों द्वारा किमिच्छक दानपूर्वक की जाने वाली बड़ी पूजा, जिसमे जगत् के सब जीवों की आशाआकांक्षा पूरा करने का प्रयत्न होता है । तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष के समय होने वाले महोत्सव ही कल्याणक होते हैं । राग देष का ही अपर नाम कषाय है, जो आत्मा को कसे अर्याद दुःख दे, उसे ही कषाय कहते हैं, कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ । देव बन्दना, जिस वाचनिक, मानसिक, कायिक क्रिया के करने से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का उच्छश्न विनाश होता है। काया की ओर उपयोग न जाकर आत्मा में ही लीनता । शरीर से ममता रहित होकर आत्म साक्षात्कार के लिए प्रतिक्षण तटस्थ रहना ही कायोत्सर्ग है। भक्तिबोज, आचाबीज । कल्पद मपूजा कल्याणक कषाय कृतिकर्म कायगुप्ति कायोत्सर्ग
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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