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________________ ( २८७ ) (मोन, निर्वाण) की ओर अग्रसर होता है। यह सहिष्णुता एवं समन्वय भावना भारतीय संस्कृति की विशेषता है। वस्तुतः प्राणिमात्र में समभाव भारतीय संस्कृति का मूल है। जन संस्कृति बड़ी प्राचीन है। डॉ० सर राधाकृष्णन कहते हैं-'जन परम्परा ऋषभदेव से अपने धर्म को उत्पत्ति होने का कथन करती है जो बहुत सी सताब्दियों पूर्व हुए हैं।" डॉ० कामता प्रसाद जैन प्राद. ऐतिहासिक काल में भी जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार स्वीकारते हैं। जैनधर्म का अर्थ है सिपाहियाना धर्म। आखिर मोह की फौज के सामने आ डटने के लिए सिपाही की जरूरत नहीं तो किसकी हो सकती है।' जैन संस्कृति को मान्यता है कि आत्मा स्वयं कर्म करती है और स्वयं उसका फल भोगती है तथा स्वयं संसार में भ्रमण करती है और भवभ्रमण से भी मुक्ति प्राप्त करती है स्वयं कर्मकरोत्यात्मा स्वयं तफलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद् विमुच्यते ।। चित्तवतियों के परिष्कारार्थ जैन संस्कृति अधिक सजग है। जैन संस्कृति मानव के चरम उत्थान में विश्वास करती है और वह प्राणियों के माध्यम से प्रमाणित करती है कि आत्मा अपने प्रयासों एवं साधना से परमात्मा बन सकती है। ऐसी प्राचीनतम संस्कृति विश्वमंत्री को प्रचारिका है एवं सम्पूर्ण जगत के कल्याण की पूर्ण भावना को लेकर ही यह आज भी जीवित है। संस्कृति के प्रमुख दो रूप हैं - १- लोक संस्कृति (पाम संस्कृति) २- लोकेतर संस्कृति (नागरिक संस्कृति) लोक संस्कृति लोकोत्तर संस्कृति को आधार शिला है । लोक संस्कृति प्रकृति की गोद में पलो हुई बनस्थली है और लोकोसर संस्कृति नगर के मध्य अथवा पार्क में निमित्त उद्यान है । एक सहज है, नैसगिक है और अकृत्रिम है और १. Indian Philosophy Vol. I. P. 287. २. "जैन धर्म की प्राचीनता और उसका प्रभाव : नामक आलेख, श्रीमद् राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रंथ, पृष्ठ ५०५ । ३. धर्म और संस्कृति, श्री जमनालाल जैन, पृष्ठ ४०-४२ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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