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________________ ( २८३ ) को समाप्त किया जा सकता है। फलस्वरूप यह सोत्साह बसविधि मध्य का कोपण करता है।' अष्ट कर्मों के संकल्प करने के पश्चात आराध्य के पंचकल्याणकों का स्मरण कर तप बनने को शुभ कामना भक्त द्वारा की जाती है । इसके उपरान्त प्रभु के व्यक्तित्व सथा कृतित्व विषयक समग्र गुणों की चर्चा, जयमाल नामक पूजांस में पूजक द्वारा सम्पन्न होती है।' अन्त में इत्याशीर्वाद परिपुष्पांजलि अपग करने के लिए पूजक समत्सुक होता है। उपयुक्त पूजाकाव्य के मनोवैज्ञानिक अध्ययन से स्पष्ट है कि लोक में प्रचलित जैनेतर पूजा और अनपूजाके स्वरूप में पर्याप्त और स्पष्ट अन्तर है। लोकेषणा के वशीभूत होकर सामान्य पूजक जैनपूजा करने की पात्रता प्राप्त १. जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत् पुष्प परु दीपक घई। वर धुप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरू ॥ इह भांति अघर्य चढाय नितभदिकरत शिव-पंकति मच। अरहंत श्रत-सिद्धान्त गरु-निग्रन्थ नित पूजा रचू ॥ वसु विधि अषर्य संजोय के अति उछाय मनकीन । जासो पूजों परम पद देव शास्त्र गुरु तीन ॥ - श्री देवशास्त्रगुरुपूजा, धानतराय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ११०। २. पंचकल्याणकों का स्वरूप और भगवान महावीर, श्री आदित्य प्रचंडिया 'दीति', महावीर स्मारिका, अषम बण्ड, सन् १९७७, राजस्थान जैन सभा, जयपुर, पृष्ठ १६। ३. गनधर अशानिधर चक्रधर, हरधर गदाधर बरवदा । अरु चाप घर विद्यासुधर, त्रिशूल धर सेवहि सदा ॥ दुःख हरन आनन्द भरन, तारन-तरन चरन रसाल हैं। सुकुमाल गुणमनि माल उन्नत, भाल की जयमाल हैं । -- जयमाल, श्री बद्धमान जिनपूजा, वृन्दावनदास, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३८१। श्री बीर-जिनेशा नमितसुरेखा, नाग- नरेशा भगति भरा। वन्दावन ध्या विषन नशा, वांक्षित पावे शर्मवरा।। ओ३म् श्री वर्तमान जिनेनाय महार्घ निर्वपामीति स्वाहा । श्री सन्मति के जुगल पद, जो पूजे धरि प्रीति । 'इन्दावन' सो चतुर नर, मह मुक्ति-मवनीत ।। इत्याशीर्वाद, पुष्पांजलि क्षिपामि ।। -~श्री वर्षमान जिनपूजा, बन्दावनवास, मानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १५३ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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