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________________ ( २७३ ) वियोग से जीव का are मानता है अर्थात् जीव को बीच मानकर अज्ञान का पोषण करता है। मिथ्यात्व रामादि प्रकट देने वाले हैं तथापि उनका सेवन करने में सुख मानता है । यह अवता की मूल है। वह शुभ को लामवादी तथा अशुभ को अनिष्ट अर्थात् हानिकारक मानता है किन्तु सस्यदृष्टि से वे दोनों अनिष्ट हैं वह ऐसा नहीं मानता । सम्यधान सहित वैराग्य जीव का सुखरूप है तथापि उन्हें वाक और समझ में भ आए ऐसा स्वीकारता है । शुभाशुभ इच्छाओं को न रोक कर इन्द्रिय विषयों की इच्छा करता रहता है। सम्यग्दर्शन पूर्वक ही पूर्ण निराकुलता मद होती है और वही सच्चा सुख है, ऐसा न मानकर यह जीव बाहय सुविधाओं में सुख मानता है । यह जीव मिय्यादर्शन', मिथ्याज्ञान' और मियाचारित्र' के वशीभूत होकर बार गतियों में परिभ्रमण करके प्रतिसमय अनन्त दुःख भोग रहा है । जब तक देहादि से भिन्न अपने आत्मा की सच्ची प्रतीति तथा रामावि का अभाव न करे तब तक सुख-शाक्ति और आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता । आत्महित अर्थात् सुखी होने के लिए सच्चे देव गुरु और शास्त्र की teri प्रतोति, जोवादि सात तत्त्वों की यथार्थ प्रतीति, स्वाद के स्वरूप की अडा, निज शुद्धात्मा के प्रतिभास रूप आत्मा को श्रद्धादन बार लक्षणों के अविनाभाव सहित श्रद्धा जब तक जीव प्रकट न करे तब तक जीव का उद्धार नहीं हो सकता अर्थात् धर्म का प्रारम्भ भी नहीं हो सकता और तब तक आत्मा को अंशमात्र भी सुख प्रकट नहीं होता । कुबेव कुगुरु और कुशास्त्र और कुधर्म की बढा, पूजा सेवा तथा विलय करने की जो-तो प्रवृत्ति है वह अपने मिध्यात्वादि महान दोषों को पोषण देने वाली होने से दुःखदायक है, अनन्तः संसार-मन का कारण है। जो १. मिथ्यादर्शन कर्मण उदद्यात्तत्शर्थाश्रद्धान परिणामो मिथ्यादर्शनम् । - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोण भाग ३, पृष्ठ ३११ । - Ho २. ण मुवाइ वत्सहावं अनिवरी जिलेक्सदो मुगइ । तं इह मिछणाणं विवरीयं सम्मरूवं तु ॥ -जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग २, पृष्ठ २६३ । ३. भगवदर्हत्परमेश्वरमार्ग प्रतिकूलमार्गाभास तन्माचर fromrafts च!''' अबवा स्वात्म अनुष्ठान रूपविमुखत्वमेवसिष्या चारिचं । - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, ० विनेन्द्र वर्णी, पृष्ठ २०३ । 5.00
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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