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________________ ( ५ ) evergयोग के शास्त्रों में बाहू याचार का विधान व्यंजित है। जिनवाणी का तात्पर्य वीतरागता है । यह परमधर्म है, जिसकी अनुयोगों में परिपुष्टि हुई | आत्म-स्वरूप में रमण करना वस्तुतः चारित्र है । मोह, राग, द्वेव से रहित आत्मा का परिणाम साम्य भाव है, जिसे प्राप्त करना चारित्र का मूलोद्देश्य है ।" erfer साधना गृहस्थ से प्रारम्भ होती हैं । विवेकवान विरक्त चित्त अणुव्रती गृहस्थ को श्रावक कहा गया है ।" जैन परम्परा के अनुसार श्रावक को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है', यथा १. पाक्षिक २. नैष्ठिक ३. साधक पाक्षिक श्रावक देव-शास्त्र-गुरु का स्तवन करता है, साथ ही उसे रत्नत्रय का पालन कर सप्त व्यसनों से विरक्त होकर अष्टमूल १. चारित खलु धम्मो धम्मो जो समोत्तिणिद्दिट्ठो । मोहक्खहविहीण परिणामो अप्पणो हु समो ॥ प्रवचनसार - कुंदकुदाचार्य, प्रथम अध्याय, गाथांक ७, श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़, सौराष्ट्र, द्वितीय संस्करण १९६४, पृष्ठ ८ । २. ❤ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश. -क्ष० जिनेन्द्रवर्णी, भाग ४, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण १६७३, पृष्ठ ४६ ! ३. बृहद् जैन शब्दार्णव- मास्टर बिहारीलाल जैन, भाग २, अमरोहा, मूलचन्द्र किसनदास कापड़िया, पुस्तकालय, सूरत, पृष्ठ ६२५ । ४. 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इन तीन गुणों को रत्नत्रय कहते हैं ।' - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश — क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी, भाग ३, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण सन् १९७२, पृष्ठ ४०४ । ५. द्यूतमांससुरा वेश्याखेट चौर्य पराङ्गना । महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद्बुधः ॥ -- पंचविशतिका--आचायं पद्मनन्दि, अधिकार संख्या १, श्लोक संख्या १६, जीवराज ग्रन्थमाला, सोलापुर, प्रथम संस्करण, सन् १९३२ ई० । :
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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