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________________ उत्तरोत्तर शान्तरस में परिणत हो जाता है। इसी पूजा के जयमाला मंग में उपास्य का तुम-गान करने में भक्त अथवा पूजक का मन उत्साह तम्जन्यपुरकार्य और वीरोचित उदात्त भावना से आप्लावित हो उठता है । अन्त में यह उत्साह परम पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष सुख की स्थिति की अनुमोबना में शान्तरस रूप में परिणत हो जाता है। उपास्य देव के जन्म कल्याणक पर भक्त का हृदय उल्लास तथा १. सुरपति उरग नरनाथ तिनकरि वन्दनीक सुपदप्रभा । अतिशोभनीक सुबरण उज्जल देख छवि मोहित सभा ॥ पर नीर क्षीर समुद्र घट भरि अग्र तसु बहुविधि नचू। बरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निरपथ नित पूजा रचू । -श्री देवशास्त्र गुरुपूजा,द्यानतराय, संगृहीत प्रथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशक-अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, सन् १९५७, पृष्ठ १०७ । २. बउ कर्म किसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि । जे परम सूगुण हैं अनंत धीर, कहबत के छयालीस गूण गंभीर ॥ शुभ समवशरण शोभा अपार, शत इन्द्र नमनकर सीस धार । देवाधिदेव अरहंत देव, बंदो मन वच तन करि सुसेव ॥ जिनकी धुनि हवे ओंकार रूप, निर अक्षरमय महिमा अनूप । दश-अष्ट महाभाषा समेत, लधुभाषा सात शतक सुचेन । सो स्यावादमय सप्तभंग, गणधर गूथे बारह सु अंग । रवि शशि न हरे सो तम हराय, सो शास्त्र नमो बहु प्रीतिल्याय ।। गुरु बाचारज उवझाय साध, तन नगन रतनय निधि अगाध । संसार-देह वैराग धार, निरवांछि तपे शिवपद निहार ॥ गुण छतिस पच्चिस आठ बीस भवतारनतरन जिहाजईस । गुरु की महिमा बरनी न जाय, गुरु नाम जपों मन वचन काय।। ___ कीजे शक्ति प्रमान शक्ति बिना सरधा धरे । 'चानत' सरधावान अजर अमर पद भोगवे ।। -श्री देवशास्त्र गुरुवा, धानतराय, संगृहीत ग्रंय-ज्ञानपीठ पुजांजलि, प्रकाशक -अयोध्यात्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, सन् १९५७, पृष्ठ ११०-१११ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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