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________________ ( १६४ ) चैन माचायों की स्थायी भावों से सम्बन्धित नवीन उद्भावना विषय में संक्षेप में चर्चा करना यहां असंगत नहीं होगा । श्रृंगार रस का स्थायी भाव जैन आचार्यों ने परम्परागत स्थायीभाव 'रति' के स्थान पर शोभा माना है। श्रृंगार का मूलतः अर्थ शोभा ही है । उसमें अर्थगतगूढ़ता और व्यापकता दोनों ही है। कोई अविरूद्ध या विरूद्ध भाव उसे छिपा नहीं सकता । रति को श्रृंगार का स्थायी भाव मान लेने में सबसे बड़ी आपति तो यह है कि एक ही विषय भोग सम्बन्धी चित्र विभिन्न व्यक्तियों-साधु, कामुक एवं चित्रकार या कवि के मन में एक ही भाव की उद्भावना नहीं करता । इसी प्रकार हास्यरस का स्थायी भाव परम्परानुमोदित 'हास' के स्थान पर आनंद माना गया है। किसी वृत्ति को पढ़ने या सुनने या किसी दृश्य को देखने पर आनन्द की उत्पति में ही हास्य रस की निष्पत्ति समीचीन लगती है। हंसी कभी-कभी तो दुःख या खोक्ष की अवस्था में भी आ जाती है। परम्परानुमोदित करुण रस का स्थायी भाव 'शोक' के स्थान पर कोमलता माना है । मनोवैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार भी शोक में अन्तर्द्वन्द जन्य चिन्ता का मिश्रण है, शोक का जन्म किसी प्रकार की हानि पर निर्भर करता है फिर उसमें कोमलता कहाँ स्थान पाती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि करुणरस का स्थायी आधार कोमलता, सहानुभूति और सरलता है न कि शोक | वीर रस का स्थायीभाव उत्साह के स्थान पर पुरुषार्थ माना है । उत्साह तो कभी विपरीत कारण मिलने पर ठंडा भी पड़ सकता है, जबकि पुरुषार्थ में तो आगे बढ़ने की प्रवृत्ति हो अन्तनिहित है । पुरुषार्थ का क्षेत्र भी 'उत्साह' की अपेक्षा अधिक व्यापक है, उसमें उत्साह के साथ-साथ लगन और क्रियाशीलता भी है। उत्साह में जहाँ आवेश है वहाँ वीरता में गाम्भीर्य, उत्साह तो रणवाद्य बजाकर भी उत्पन्न किया जा सकता है, जबकि बोरता आत्मगत होती है । इसी प्रकार भयानक रस का स्थायीभाव भी कवि ने 'भय' के बजाय 'चिन्ता' माना है । चिन्ता में भय से अधिक व्यापकता है । चिन्ता उत्पन्न होने पर ही भय उत्पन्न होगा । भय के मूल में चिन्ता होगी ही । प्रत्येक भयामक दृश्य सभी को भयभीत करते हैं, यह सर्वथा सम्भव नहीं । हम भयभीत
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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