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________________ ( १९१ ) बासक्ति होने पर व्यक्ति को सुख-दुःख की अनुभूति हुआ करती है। वास्तविकता यह है कि जब हृदय में विवेक यथार्थज्ञान का उदय होता है तब प्रभाव जन्य विरसता और विषमता का पूर्णतः विसर्जन हो जाता है और इस प्रकार निरन्तर आत्मानुभूति होने लगती है।' जैन आचार्यों को रसों की परिसंख्या में किसी प्रकार का विवाद नहीं रहा । उन्होंने परम्परागत नवरसों को ही स्वीकृति दी है। बाल कवियों की भांति जैन आचार्यों ने शान्तरस को रसराज कहा है। इन कवियों को रस और उनके स्थायी भावों में परम्परानुमोक्ति व्यवस्था में यत्किषित परिवर्तन भी करना पड़ा है जिसका मूलाधार आध्यात्मिक विचारधारा ही रही है।' १. हिन्दी-जन-साहित्य-परिशीलन, (भाग १), श्री नेमिचन्द्र जैन ज्योति षाचार्य, प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोष, बनारस, प्रथम संस्करण १६५६ ई०, पृष्ठ २२५ । २. प्रथम सिंगार वीर दूजो रस, तीजो रस करुणा सुखदायक । हास्य चतुर्थ रूद्र रस पंचम, छट्ठम रस बीभच्छ विभायक ॥ सप्तमभय अट्ठमरस अद्भुत, नवमौ शात रसनि को नायक । ए नव रस एई नव नाटक, जो जहं मगन सोइ तिहि लायक ।। --सर्वविशुद्धि द्वार, नाटकसमयसार, रचयिता-कविवर बनारसी दास, प्रकाशक- श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मदिर ट्रस्ट, सोनगड़ ( सौराष्ट्र), प्रथम संस्करण वीर संवत् २४६७, पृष्ठ ३०७ । ३. सोभा में सिंगार बसे वीर पुरुषारथ में, ___कोमल हिए में करना रस बखानिये। आनंद में हास्य रूडमंड में विराजे रुद्र, बीभत्स तहाँ जहाँ पिलानि मन भानिये ।। चिंता में भयानक अथाहता में अद्भुत, माया की यरुचि ताम सांत रस मानिये । - एई नवरस भवरूप एई भावरूप, इनिको विलेछिन सुद्रिष्टि जागे जानिये ।। -सर्वविशुद्धिद्वार, नाटक समयसार, रचयिता-बनारसीदास, प्रामकश्री दिगम्बर जैन स्वाध्यायमदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र ), अषम संस्करण वीर संबद २४६७, पृष्ठ ३०७-३०८।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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