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________________ वस्तुतः राग-व (पक्षपात) रहित हो और पूर्ण ज्ञानी हो, वहीं सपा शास्त्र ( श्री देवशास्त्र गुरुपूजा )२ शास्' धातु से 'क्ट्रम' प्रत्यय करने पर 'शास्त्र' शब्द बनता है जिसका अर्थ पूज्य अन्य है। जिनवाणी जिसमें समाहित हो उसे शास्त्र को संज्ञा से अभिहित किया जाता है । 'शास्त्र' जिनवाणी का गाविक रूप है, जो प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण से वाधा रहित वस्तु स्वभावका क्वार्थ बोस कराने बाला, कुमार्ग से हटाकर सर्वप्राणी मात्र का हितकारी होता है । अपनी इसी गुण-परिमा के कारण पूज्य है। जैन धर्म में 'देवशास्त्र-गुरु' को रत्न रूप स्वीकार किया गया है । शास्त्र भडान ही सम्यक् बर्मन माना गया है।' शास्त्र में कथित देवत्व विद्यमान है फलस्वरूप रत्नत्रय को पूर्णता प्राप्त होती है। माप्तेनोछिन्न दोषण, सर्वनागमेधिमा । भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा हयाप्तता भवेत् ।। म त्पिपासा जरातंक जन्मान्तक भय स्मयाः । न राग द्वेष मोहाश्य यस्याप्त. स प्रकीर्त्यते ।। -रलकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य समन्तभद्र, प्रकाशक-माणिक चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, हीराबाग, बम्बई, वि० सं० १९८२, छंदांक ५.६, पृष्ठ ४। २. श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, कुणिलाल, संगृहीतमय-नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, सम्पादिका पतासीबाई, गया (बिहार), भाद्रपदवीर सं. २४८७, पृ० ११३ । ३. श्रद्धानं परमार्था नामाप्तागमत पो मृताम । त्रिमूढापोढ़यष्टांम सम्यक दर्शनं समयम् ।। - रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४, जैनेन्द्र सिदान्त कोश, भाग ४, जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०३०, पृष्ठांक ३५७ । ४. अरहंत सिद्धसाहू तिदयं जिणधम्मवयण परिमाहू जिण निसया इशिएण वदेवता दितु में बोहि । -रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ११६, १६८, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग-२ जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०३०, पृष्ठ ४३३ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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