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________________ (८३) धरजोके समयमें भगवती अाराधना पर श्रीचन्द्रका कोई टिप्पण मौजूद था। इस टिप्पण ग्रन्थके कर्ता उन श्रीचन्द्र ही जान पड़ते हैं। यह भी हो सकता है कि इस टिप्पणके कर्ता उक्त श्रीचन्द्रसे भिन्न कोई दूसरे। ही व्यक्ति हों, पर अधिक सम्भावना तो इन्हीं श्रीचन्द्रकी जान पड़ती है। ११०वीं प्रशस्ति 'श्री देवताकल्प' की है जिसके कर्ता भट्टारक अरिष्टनेमि अथवा मुनि नेमिनाथ त्रैविद्यचक्रवर्ती हैं। विद्यचक्रवर्ती नामकी एक उपाधि थी जिसके धारक अनेक प्राचार्य एवं भट्टारक हो गये हैं । यह उपाधि तीन भाषाओंके विज्ञ विद्वानोंको दी जाती थी। भ० अरिष्टनेमि गुणसेनके शिष्य और वीरसेनके प्रशिष्य थे ।। ग्रन्थमें कोई रचनाकाल दिया हुश्रा नहीं है और न किसी राजादिकका भी कोई समुल्लेख किया गया है । ऐसी हालतमें भट्टारक अरिष्टनेमिका समय निश्चित करना इस समय साधन-सामग्रीके अभावमें सम्भव नहीं है। प्रशस्तिमें वीरसेनके शिष्य गुणसेन बतलाये गए हैं। ये गुणलेन वे ही जान पड़ते हैं जो सिद्धान्तसारके कर्ता नरेन्द्रसेन द्वारा स्मृत हुए हैं। यदि यह अनुमान ठीक हो तो कहना होगा कि भ० अरिष्टनेमि सेन-परम्पराके विद्वान थे और उनका काल विक्रमकी ११वी १२वीं शताब्दी जान पड़ता है। १११ वीं प्रशस्ति 'क्षपणासारगद्य' की है, जिसके कर्ता प्राचार्य माधवचन्द्र विद्यदेव हैं, जो भाषात्रयमें निपुण होनेके कारण 'विच देव' की उपाधिसे अलंकृत थे। माधवचन्द्र ने इस ग्रन्थको रचना राजा भोजराजके बाहुबली नामक महामात्यकी संज्ञप्ति (ज्ञान प्राप्ति) के लिये की है। ये राजा भोजराज कौन थे, उनका राज्य कहाँ पर था और बाहुबली मंत्रीका क्या कुछ जीवन-परिचय है ? आदि बातों पर प्रशस्ति परसे कोई प्रकाश नहीं पड़ता। हाँ, अन्धका रचनाकाल प्रशस्तिमें जरूर दिया हुआ है, उससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ शक सं० ११२५ (वि० सं० १२६०) देखो, श्रीचन्द्र नामके तीन विद्वान नामका मेरा लेख, अनेकान्त वर्ष ७ किरण १-१. पृष्ठ १०३ ।
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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