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________________ ( ६२ ) जैन ल्मारक पृ० १२० में धारवाड जिले की गढ़ तहसील से १२ मील दक्षिण पश्चिमी और बतलाया गया है । और वहां पर चार जैन मन्दिर इस समय भी बतलाए गए हैं, जिनमें शक मं० ८२४,८२५, १०२, १७५, १०५३, ११६७, १२७५, और १५६७ के शिलालेख भी अङ्कित हैं । इन मन्दिरोंमें तीन मन्दिरोंके नाम श्री चन्द्रप्रभु श्री पार्श्वनाथ और हीरी मन्दिर बतलाए गए हैं । मूलगुन्डके एक शिलालेख में प्रसार्य द्वारा सेनवंशके कनकसेन मुनिको नगरके व्यापारियोंकी सम्मति से एक हजार पानके वृक्षों का एक खेत मन्दिरोंकी सेवार्थ देनेका उल्लेख है । महापुराणके उक रचनाकाल से मल्लिषेणाचार्यके समय विक्रमकी ११वीं शताब्दीका उत्तरार्ध और १२वीं शताब्दीका पूर्वार्ध जान पड़ता है । उक्त छह ग्रन्थों की प्रशस्तियोंके अतिरिक 'सज्जन चित्त वल्लभ नामका एक २५ पद्यात्मक संस्कृत ग्रन्थ भी इन्हींकी कृति बतलाया जाता है जो हिन्दी पद्यानुवाद और हिन्दी टीका साथ प्रकाशित हो चुका है । इनके सिवाय 'विद्यानुवाद' नामका एक ग्रन्थ और भी जयपुर के पं० लूणकरणजीके शास्त्र भण्डार में मौजूद है जिसकी पत्र संख्या २३८ और २४ अध्यायोंमें पूर्ण हुआ है । यह ग्रन्थ प्रति सचित्र है ६१वीं प्रशस्ति “ज्वालिनीकल्प' नामके ग्रन्थ की है, जिसके कर्ता आचार्य इन्द्रनन्दी योगांन्द्र है, जो मन्त्र शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे तथा वासवनन्दीक प्रशिष्य और वप्पनन्दीके शिष्य थे। इन्होंने हेलाचार्य द्वारा उदित हुए अर्थको लेकर इस 'ज्वालिनी कल्प' नामक मन्त्र शास्त्र की रचना की है। इस ग्रन्थमें मन्त्रि, ग्रह, मुद्रा, मण्डल, कटुतैल, चश्यमन्त्र, तन्त्र, स्नपनविधि नीराजनविधि और साधन-विधि नामके दश अधिकारों द्वारा मन्त्र शास्त्र विषयका महत्वका कथन दिया हुआ देखो, राजस्थानके जैनशास्त्र भण्डारोंकी ग्रन्थ-सूची भाग २ पृ० ४१
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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