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________________ ( ५० ) बतलाई है— काष्ठासंघ में स्थित माथुरगच्छ और पुष्करगण में लोहाचार्यके अन्वयमें होने वाले भ० धर्मसेन, भावसेन, सहस्त्रकीर्ति, गुणकीर्ति, यश:कीर्ति, जिनचन्द्र, श्रुतकीर्तिके शिष्य बुधराघवके शिष्य बुधरत्नपाल, बनमाली और कान्हरसिंह । इनमें कान्हरसिंहके पुत्र अरुणमणिने प्रस्तुत ग्रन्थ मुगल बादशाह अवरंगशाह (औरंगजेब) के राज्यकाल में सं० १७१६ में जहानाबाद नगर (वर्तमान न्यू देहली) के पार्श्वनाथ जिनालय में बनाकर समाप्त किया है 1 ७३वीं प्रशति 'आदिनाथफाग' और १०२वीं प्रशस्ति कर्मकांडटीका ( कम्मपरडी ) की है जो १६० गाथात्मक है । और जिनके कर्ता भट्टारक ज्ञानभूषण और सुमतिकीर्ति हैं । जो मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके भट्टारक सकलकीर्तिके पट्ट पर प्रतिष्ठित होने वाले भुवनकोर्तिक शिष्य एवं पट्टधर थे और सागवाडेकी गद्दी पर आसीन हुए थे। यह विद्वान थे और गुजरात निवासी थे। गुजरात में इन्होंने सागारधर्म और आभीरदेशमें arasat gaire प्रतिमाओं को धारण किया था । और बाग्वर ( बागड़ ) देशमें पंचमहाव्रत धारण किए थे। इन्होंने भट्टारक पद पर आसीन होकर श्राभीर, बागड, तौलव, तैलंग, द्राविड, महाराष्ट्र और दक्षिण प्रान्तके नगरों और ग्रामों में विहार ही नहीं किया; किन्तु उन्हें सम्बोधित भी किया और सन्मार्गमें लगाया था । द्राविड़देशके विद्वानोंने इनका स्तवन किया था सौराष्ट्र देशवासी धनी श्रावकोंने उनका महोत्सव किया था । इन्होंने केवल उम्र प्रांतोमें ही धर्मका प्रचार नहीं किया था किन्तु उत्तर प्रदेशमें भी जहाँ तहाँ विहार कर धर्म-मार्गको विमलधारा बहाई थी। जहां यह विद्वान और कवि थे वहां ऊँचेद जैक प्रतिष्ठाचार्य भी थे । आपके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियों आज भी उपलब्ध है । लौकिक कार्यो के साथ आप आध्यात्मिक शास्त्रों भी अभ्यासी थे, और आध्यात्मकी चर्चा करनेमें आपको बड़ा रस श्राता था । आप सं० १५३२ से १५५७ तक भट्टारक पद पर आसीन रहे हैं। और बादमें उससे विरक्त हो, अपना पद विजयकीर्तिको सोंप अध्यामोर अग्रसर हुए, और फलस्वरूप संवत् १५६० में 'तत्त्वज्ञान
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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